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*दादू उद्यम औगुण को नहीं, जे कर जाणै कोइ ।*
*उद्यम में आनन्द है, जे सांई सेती होइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*उपदेश चेतावनी का अंग ८२*
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कुल१ कुटुम्ब कैंवछ२ वनी, मर मरकट३ तहँ जाय ।
साधु शबद मानें नहीं, मरजी मूढ खुजाय ॥१९३॥
संपूर्ण१ कुटुम्ब कौंछ२ का वन है, मन रूप वानर३ वहां जाता है अर्थात कुटुम्ब में आसक्त होता है, संतों के वैराग्य पूर्ण नहीं मानता, अत: जैसे वानर कौंछवन में जाने पर खुजा खुजा कर मरता है, वैसे ही कुटुम्ब की आसक्ति से मन दुखी होगा ही ।
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कुल१ कुटुम्ब कलियुग सही, कलि कलणे२ के ठांउ ।
रज्जब विरच्या३ यूं समझ, ताथें तहां न जांउ ॥१९४॥
संपुर्ण१ कुटुम्ब निश्चय ही कलियुग रूप है और कलियुग दलदल भूमि के स्थान के समान गिलने२ वाला है, ऐसा समझकर मैं कुटुम्ब से विरक्त३ हुआ हूँ, इसलिये वहाँ नहीं जाता ।
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छाजन भोजन विषय रस, जीव लहै जग वास ।
रज्जब पाये पान मुर१, पृथ्वी वृक्ष पलास ॥१९५॥
पृथ्वी पर पलाश का वृक्ष तीन१ पत्ते प्राप्त करता है, वैसे ही संसार में रहने पर जीव को वस्त्र, भोजन और विषय-रस ये तीन मिलते हैं ।
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उद्यम१ उभय२ न कीजिये, मन मूंसा सुन येह ।
बाति चुरावत करंड काटतों, कुशल सु नाँही देह ॥१९६॥
हे मन ! सुनले, ऐसा उद्योग१ मत कर जैसे चूहा दो२ उद्योग करता है - एक तो चूहा तेल के दीपक की बत्ती चुराकर छप्पर में जा घुसता है, जिससे अपने कुटुम्ब के सहित जल मरता है । दूसरा - चूहा सर्प के करंड को काटकर उसमें घुसता है तब उसे सर्प खा जाता है । उक्त प्रकार उद्योग करने से देह का कुशल नहीं होता ।
(क्रमशः)

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