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*लोभ मोह मद माया फंध,*
*ज्यों जल मीन न चेतै अंध ॥*
*दादू यहु तन यों ही जाइ,*
*राम विमुख मर गये विलाइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश. ३६)*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*उपदेश चेतावनी का अंग ८२*
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वन कैंवछ१ काया कुमति, मरकट मन हिं सु भींच ।
रज्जब सो न उपाड़ ही, बैठे मूरख सींच ॥१८९॥
कौंछ१ के वन में वानर जाय तो उसको खुजाने का क्लेश ही है वा मृत्यु ही है, वैसे ही शरीर में कुमति है, उसमें मन जाता है तो उसकी भी हानि ही है । किन्तु फिर भी जैसे वह मूर्ख वानर कौंछ के वृक्ष से छू जाने पर जल फैंकता है, उसे उखाड़ता नहीं, वैसे ही वह मूर्ख नर कुमति को कुसंग में बैठकर सींचता है, सत्संग द्वारा उखाड़ता नहीं ।
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मोह मूंज के जेवड़हु१, गांठ दई है घोलि२ ।
रज्जब छांटै प्रेम जल, निकस्या चाहै खोलि ॥१९०॥
जैसे कोई अपने को मूंज के रस्से१ से खूब खैंच२ कर गांठ देकर बाँध ले और उपर से जल छिड़कने, फिर उसे खोल कर निकलना चाहे तो कठिन है, वैसे ही जीव मोह बंधा है, मायिक संसार से ही प्रेम करता है और मुक्त भी होना चाहता है, तो इस स्थित में भी मुक्त कैसे हो सकता है ?
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कुल कुटुम्ब थूहर बिड़ा१, नख शिख कांटे वीर ।
शोणित२ सीर३ पर सत४ पड़ै, स्वारथ वहत समीर५ ॥१९१॥
हे भाई ! सब कुटुम्ब थूहर वृक्ष१ के समान है जैसे थूहर में नीचे से ऊपर तक कांटे होते है, वैसे ही सब-कुटुम्ब के लोगों में रागादि कांटे हैं । रक्त२ के साझे३ के बल४ का असर तो पड़ता है, प्राण-वायु५ अर्थात प्राण धारी जीव स्वार्थ की ओर ही जाता है । अत: यती को कुटुम्ब से दूर ही रहना चाहिये ।
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जग थोथा थूहर बिड़ा, कुमति सु कांटा हुं पूर ।
बुद्धि वस्त्र फाटें निकट, रज्जब निकसहु दूर ॥१९२॥
जगत् खाली थूहर वृक्ष के समान है, कुबुद्धि रूप कांटों से भरा है, सुबुद्धि रूप वस्त्रों को फाड़ डालता है, अत: इससे दूर होकर ही निकलो अर्थात प्रभु के पास जाओ ।
(क्रमशः)
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