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*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग गौड़ी १, गायन समय दिन ३ से ६*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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३५ - परिचय सत्संग । दीपचन्दी ताल
सत्संगति मगन पाइये,
गुरु प्रसादैं राम गाइये ॥टेक॥
आकाश धरणि धरीजै,
धरणी आकाश कीजै,
शून्य माँहिं निरख लीजे ॥१॥
निरख मुक्ताहल माँहीं साइर१ आयो,
अपने पीया हौं ध्यावत खोजत पायो ॥२॥
सोच साइर अगोचर लहिये,
देव देहुरे माँहीं कवन कहिये ॥३॥
हरि को हितारथ ऐसो लखै न कोई,
दादू जे पीव पावै अमर होई ॥४॥
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सत्संग से साक्षात्कार की पद्धति बता रहे हैं -
निरँतर सत्संग में लगे रहकर, कृपा पूर्वक सद्गुरु की बताई हुई विधि से राम - गुण गान करते हुये राम को प्राप्त करो ।
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ब्रह्म - स्वरूप आकाश को वृत्ति रूप पृथ्वी में धरो अर्थात् निरँतर ब्रह्माकार वृत्ति रक्खो । वृत्ति रूप पृथ्वी को ब्रह्म रूप आकाश बनाओ अर्थात् वृत्ति को निर्विकार करो, फिर शून्य रूप सहज समाधि में परब्रह्म का साक्षात्कार कर लो ।
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इस प्रकार देखने पर ही हृदय - सागर१ में परब्रह्म रूप मोती हमारी ज्ञान - दृष्टि में आया है । हमने ध्यान तथा विचार द्वारा खोजते हुये ही अपने प्रभु को प्राप्त किया है ।
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तुम भी विचार द्वारा हृदय - सरोवर में ही इन्द्रियातीत परब्रह्म को प्राप्त करो । परब्रह्म देव चूना पत्थर के मंदिर में ही है, यह कौन कहता है ? वह एकदेशी नहीं हो सकता, वह तो सर्वत्र ही व्यापक है ।
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अपने कल्याणार्थ हरि को उक्त प्रकार कोई भी अज्ञानी नहीं जानता । यदि यह जानकर ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है तो वह ब्रह्म रूप होकर अमर हो जाता है ।
(क्रमशः)

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