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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)
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झूठे अंधे गुरु घणे, भरम दिढावैं आइ ।
दादू साचा गुरु मिलै, जीव ब्रह्म ह्वै जाइ ॥१२५॥
झूठे अंधे गुरु घणे, बँधे विषय विकार ।
दादू साचा गुरु मिल्या, सन्मुख सिरजनहार ॥१२६॥
झूठे अंधे गुरु घणे, भरम दिढ़ावैं काम ।
बँधे माया मोह सौं, दादू मुख सौं राम ॥१२७॥
झूठे अँधे गुरु घणे, भटकैं घर घर बार ।
कारज को सीझै नहीं, दादू माथै मार ॥१२८॥
असत्य मार्ग का उपदेशक ‘असत्य गुरु’ कहलाता है । असत्य मार्ग क्या है? काम्यकर्मप्रधान, द्वैत बुद्धि पैदा करने वाला प्रेयोमार्ग ही असत्य मार्ग कहलाता है । द्वैतबुद्धि में भय सुना जाता है । द्वैतबुद्धि जन्म-मरण की देने वाली है ।
अद्वैत ब्रह्मबोधक श्रेयोमार्ग मुक्ति का प्रदाता होने से सत्यमार्ग है । अद्वैत का बोध कराने वाला सच्चा गुरु है । क्योंकि उसकी सत्यब्रह्म में निष्ठा है । आत्मा का साक्षात्कार करने के कारण नित्य मुक्त है । ऐसे गुरु के द्वारा जीव-ब्रह्म की एकता का उपदेश करने से शिष्य संसार-सागर से मुक्त हो जाता है ।
जो स्वयं प्रपञ्चजाल में फंसा हुआ तथा विषय-विकारों में उलझा हुआ हो वह असत्य गुरु है । ऐसा गुरु केवल मुख से राम नाम जपता है, हृदय से नहीं । तथा स्वार्थसिद्धि के लिये घर-घर भटकता फिरता है । ज्ञान न होने से वह ‘अन्धा’ कहलाता है । ऐसे गुरु को त्याग देना चाहिये क्योंकि उससे कोई कार्यसिद्धि नहीं होती । लिखा है-
“शिष्य का धन हरण करने वाले गुरु तो बहुत हैं, परन्तु उसके सन्ताप को मिटाने वाला गुरु दुर्लभ है । पाखण्डी, पापी, नास्तिक, भेदबुद्धिवाला, स्त्री-लम्पट, दुराचारी, कृतघ्न, विषयासक्त, ज्ञानहीन, मिथ्यावादी, निन्दा कराने वाला, गुरु हो तो उसे छोड़ देना चाहिये ।”
क्योंकि ऐसा गुरु अपनी विश्रान्ति को ही नहीं जानता तो फिर दूसरों को कैसे पार लगायेगा ।
कर्म से भ्रष्ट, क्षमारहित, निन्दक, असत्यवादी तथा सर्वधर्मबहिष्कृत गुरुओं को भी त्याग देना चाहिये ।
ये गुरु आश्रमों में भी नीच होते हैं, आश्रम की निन्दा ही कराते हैं तथा भगवान् की माया से मोहित रहते हैं, अतः उपेक्ष्य हैं ।
‘जन्माब्ध और कामान्ध को कुछ नहीं सूझता तथा उन्मत्त और स्वार्थी को दोष दीखते नहीं ।
गुरु भी यदि अभिमानी और उत्पथगामी(गलत रास्ते पर चलने वाला) हो, कर्तव्य अकर्तव्य का विवेक न रहता हो तो वह त्यागने योग्य ही है ॥१२५-१२८॥’
(क्रमशः)

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