बुधवार, 30 अक्टूबर 2019

= ८७ =


🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🙏 *#श्रीदादूअनुभववाणी* 🙏
*द्वितीय भाग : शब्द*, *राग गौड़ी १, गायन समय दिन ३ से ६*
साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, राज. ॥
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८७ - वैराग्य उपदेश । निसारुक ताल ।
मेरा मेरा छाड़ गंवारा, शिर पर तेरे सिरजनहारा ।
अपनैं जीव विचारत नाँहीं, क्या ले गइला१ वँश तुम्हारा ॥टेक॥
तब मेरा कृत२ करता नाँहीं, आवत है हाकारा३ ।
काल चक्र सौं खरी४ परी रे, विसर गया घरबारा ॥१॥
जाइ तहां का सँजम कीजे, विकट पँथ गिरिधारा ।
दादू रे तन अपना नाँहीं, तो कैसे भया सँसारा ॥२॥
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८७ - ८८ में वैराग्य प्रद उपदेश कर रहे हैं, हे मूर्ख ! यह द्रव्य मेरा है, यह धाम मेरा है, ऐसा करना छोड़ दे । ये सब तो तेरे शिर पर रहने वाले सृष्टि - कर्ता प्रभु के हैं । तू अपने मन में विचार नहीं करता, तेरे से पहले के वँश वाले, तेरे पितामह, प्रपितामह, क्या साथ ले गये१ हैं ? 
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तेरा मेरा जो कर्तव्य२ है उसे तो निष्काम भाव से करता नहीं और कर्तृव्य का मिथ्याहँकार३ मन में पहले आ जाता है । जब यमदूतों का हल्ला३ आता है तब तो तू मेरा मेरा नहीं करता, उस समय मेरा मेरा कहना कहां चला जाता है ? पूर्वजन्म में भी जब वास्तव४ में काल - चक्र की महान् विपत्ति पड़ी थी, तब तू अपने असली घर वाले परमात्मा को भूल गया था । 
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जहां तू काल - पाश में बंधकर जायेगा वहां के तप्त पर्वत और वैतरणी नदी की भयँकर धारा वाले विकट मार्ग का सँयम रूप साधन कर । अरे भाई ! जब यह अपना शरीर भी अपना नहीं है, तब साँसारिक द्रव्य, धामादि अपने कैसे हो सकेंगे ? अत: मेरा - मेरा छोड़ कर भगवद् भजन कर ।
(क्रमशः)

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