बुधवार, 30 अक्टूबर 2019

= *विवेक समता का अंग ८९(५/८)* =

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*सबै सयाने कह गये, पहुँचे का घर एक ।*
*दादू मार्ग माहिं ले, तिन की बात अनेक ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*विवेक समता का अंग ८९* 
सब संतन का एक मत१, जैसा अग्नि स्वभाय२ । 
जन रज्जब जग एकसा, दह३ दिशि देखो जाय ॥५॥ 
दशों३ दिशाओं में कहीं भी जाकर देखो, अग्नि का एक ही स्वभाव२ मिलेगा, वैसे ही जगत् में सभी संत का एक ही सिद्वान्त१ मिलेगा । 
षट् दर्शन सरिता बहैं, देखत दह१ दिशि जाँहिं । 
रज्जब रहसी राम में, फिर घिरि दरिया माँहिं ॥६॥ 
जैसे नदियां देखते देखते दशों१ दिशाओं में फिर-घिर कर समुद्र में ही जाकर रहती हैं, वैसे ही नाथ, जंगम, सेवड़े , बोद्ध, सन्यासी और शैष ये छ: भेषधारी वा पूर्वमीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग, सांख्य और वेदान्त ये षड् दर्शन नाना मत भेद हुये अन्त में निर्गुण राम में आकर स्थिर होते हैं । 
काष्ठ लोह पाषाण की, अग्नि उजागर१ एक । 
त्यों रज्जब राम हिं भजे, सो नहिं भिन्न विवेक ॥७॥ 
काष्ठ, लोहा और पत्थर का अग्नि प्रकट१ होने पर एक-सा ही भासता है, वैसे ही जो राम का भजन करते हैं, वे भेद-भाव वाले नहीं होते, उनमें समता होती है । 
रज्जब रहते जगत सौं, सुलझे१ एक हि जान । 
बहु काष्ठों के धूम ज्यों, मिलै शून्य में आन ॥८॥ 
जैसे बहुत प्रकार के काष्ठों की धुआँ आकाश में आकर एक हो ही जाती है । वैसे हि जगत से अलग१ हुये संत एक ब्रह्म को जानकर विवेकपूर्वक समता द्वारा एक होकर ही रहते हैं । 
(क्रमशः)

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