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*दादू करणी हिन्दू तुरक की, अपनी अपनी ठौर ।*
*दुहुं बिच मारग साधु का, यहु संतों की रह और ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*निष्पक्ष मध्य का अंग ८८*
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हिन्दू सेवै मूर्ति हीं, मुसलमान सु गोर ।
रज्जब मुरदे मानिये, जग जिंदा किस ओर ॥४५॥
हिन्दू मूर्ति की सेवा करते हैं और मुसलमान कब्र की सेवा करते है, दोनों ही मुरदों को मानते हैं । जगत में जीवित को किस ओर के मानते हैं ? अर्थात निष्पक्ष मध्यमार्ग के संत ही सदा सजीवन ब्रह्म की उपासना करते हैं ।
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जे देवल१ मिलै दयालु जी, अरु मालिक मिलै मसीत२ ।
तो रज्जब अण३ मिलन को, यहु सब के रस४ रीत ॥४६॥
यदि मंदिर१ में दयालु प्रभु मिलते हैं और मसजिद२ में मालिक मिलते हैं तब तो यह मंदिर-मसजिद में जाने से प्रेम४ की रीति तो सभी के हृदय में हैं, फिर उससे बिना३ मिला कौन है ?
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द्वै पख थापैं१ दोय दिशि, करै अष्ट दिशि निंदि२ ।
रज्जब सांई सकल दिशि, देखि दशों दिशि वंदि३ ॥४७॥
हिन्दू-मुसलमान दोनों पक्षों वाले प्रभु को पूर्व और पश्चिम दो दिशाओं में ही स्थापना१ करते हैं और अन्य अष्ट दिशाओं की निन्दा८ करते हैं किन्तु प्रभु तो सभी दिशाओं में हैं उन्हें दशों दिशाओं में ही व्यापक देखकर दशों दिशाओं में ही वन्दना३ करनी चाहिये ।
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देवल१ पास मसीत ह्वै, दोय न ढाहैं दोय ।
रज्जब राम रहिम कहि, बोले विघ्न न कोय ॥४८॥
मंदिर१ के पास मसजिद हो तो हिन्दू-मुसलमान दोनों ही दोनों को न गिराये मंदिर में राम कहें और मसजिद में रहीम कहें, इन नामों को बोलने में दोनों को ही विघ्न नहीं होता, दोनों ही एक प्रभु के नाम हैं ।
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पीपल बड़ बाढ१ हिं नहीं, हिन्दू तुरक फहीम२ ।
तो रज्जब क्यों मारिये, कहतों३ राम रहीम ॥४९॥
समझदार हिन्दू-मुसलमान पीपल और बड़ को नहीं काटते तब राम रहिम कहने से एक दूसरे को क्यों मारते हैं ? अर्थात अनसमझ ही मारते हैं ।
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित निष्पक्ष मध्य का अंग ८८ समाप्तः ॥सा. २८१४॥
(क्रमशः)

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