बुधवार, 30 अक्टूबर 2019

= १३७ =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
सुन्दर सद्गुरु हाथ में, करडी लई कमान ।
मार्यो खैंच कसीस कर, बचन लगाया बाण ॥
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जिनि बचन बाण लगाय उर में,
मृतक फेर जिवाइया ।
मुख द्वार होय उचार कर,
निज सार अमृत पाइया ॥
अत्यन्त कर आनन्द में,
हम रहत आठों याम हैं ।
दादूदयालु प्रसिद्ध सद्गुरु,
ताहि मोर प्रणाम हैं ॥
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राजा जनक कहते हैं, मैंने आपके तत्त्वज्ञान रूपी राशि को लेकर हृदय और उदर से अनेक तरह के विचार रूपी बाण को निकाल दिया है। बात समाप्त ही कर दी जनक ने। जनक ने कहा कि शल्यक्रिया हो गयी।
*शल्योद्धार:।*
चिकित्सा हो चुकी। आपने जो शब्द कहे, वे शस्त्र बन गये। और शास्त्र जब तक शस्त्र न बन जाएं तब तक व्यर्थ हैं। आपने जो शब्द कहे वे शस्त्र बन गये और उन्होंने मेरे पेट और मेरे हृदय में जो-जो रुग्ण विचार पड़े थे, उन सबको निकालकर बाहर फेंक दिया। बात समाप्त हो गयी।
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*तत्वविज्ञानाय।*
वह जो आपने सत्य की निर्दर्शना की, वह जो तत्त्व का इशारा किया, वह तो उद्धारक बन गयी, उसने तो मेरे भीतर से सब जहर खींच लिया, उसने तो सब कांटे निकाल लिये।
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यह बात ध्यान रहे कि दो शब्दों का उपयोग करते हैं जनक, हृदयोदरात्। हृदय और पेट से। उदर और हृदय से। यह बात बड़ी महत्वपूर्ण है। यह बहुत सदियों पुरानी बात है। अब कहीं जाकर मनोविज्ञान इस बात को समझ पा रहा है कि मनुष्य जो भी दमन करता है, विचारों का, वासनाओं का, वृत्तियों का, वह सब दमित वृत्तियां पेट में इकट्ठी हो जाती हैं।
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यह तो अभी नवीनतम खोज है, इधर पिछले ३० वर्षों में हुई है। परन्तु यह श्लोक कई हजार साल पुराना है। उदर? इसको पढ़ के चौकन्ना होता है, कि यदि कहते कि मेरे मस्तिष्क से सारे विचार निकाल लिये हैं, तो बात ज्यादा तर्कसंगत लगती। परन्तु जनक कहते हैं, मेरे उदर से, मेरे पेट से। यह बात ही जरा ठीक नहीं लगती है कि पेट से? पेट में क्या विचार रखे हैं? परन्तु आधुनिक मनोविज्ञान भी इससे सहमत है। एक कहावत भी हैं न की इसको उदरस्थ न कर सकूंगा।
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हमारे चित्त के जितने रोग हैं, सब अंततः गिरते जाते हैं, पेट में इकट्ठे होते जाते हैं। वास्तव में पेट ही एकमात्र खाली स्थान है जहां वस्तुए इकट्ठी हो सकती हैं। इसलिए उदर, जनक कहते हैं। कि जितने जितने उपद्रव मैंने अपने पेट में इकट्ठे कर रखे थे, आपके तत्वविज्ञान की चिमटी से खींच ही लिये आपने। खींचने को कुछ बचा नहीं है। मेरा पेट हल्का हो गया है। मेरा पेट निर्भार हो गया है।
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दूसरी बात कही कि और हृदय से। मस्तिष्क की तो बात ही नहीं उठायी है। इसका कारण है। तीन तल हैं हमारे जीवन के। एक है शरीर का तल, एक मन का तल और एक है आत्मा का तल। अनुसंधानकर्ताओं ने अनुभव किया कि शरीर के तल पर जो भी दबाया जाता, वह पेट में चला जाता है। चित्त के तल पर, मन के तल पर जो भी दबाया जाता है, वह हृदय में अवरुद्ध हो जाता है। और आत्मा के तल पर तो दमन हो ही नहीं सकता। और आत्मा का स्थान है मस्तिष्क के अंतस्तल में, सहस्रार। तो यह तीन स्थान हैं। *पेट में शरीर का जोड़ है। हृदय में मन का जोड़ है। और सहस्रार में आत्मा का जोड़ है।*
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*यदि शरीर और मन की गांठ खुल जाए, कुछ भी दबा हुआ न रह जाए, तो जो ऊर्जा पेट में अटकी है, जो ऊर्जा हृदय में उलझी है, वह मुक्त हो जाती है। वह मुक्त हुई ऊर्जा वह जो कमल का फूल हमारे मस्तिष्क में प्रतीक्षा कर रहा है जन्मों जन्मों से, उसे ऊर्जा मिल जाए तो वह खिल जाए। ऊर्जा के मिलते ही वह खिल जाता है। वही मुक्ति है।*
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जनक कहते हैं कि आपने तो अपने शब्दों के वाणों से मेरे भीतर चुभे वाणों को निकाल लिया। मैं खाली हो गया। मैं रिक्त हो गया। मैं हल्का हो गया। मैं स्वस्थ हो गया हूं। हृदय और उदर से अनेक तरह के विचार रूपी वाण को निकाल दिया है।
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*नानाविध परामर्श।*
यह भी शब्द समझने जैसा है। हमारे जीवन में इतनी राय दी हैं लोगों ने हमे, उन्हीं विचारों के कारण हम संकट में पड़े हैं।
यह जो न पता कितने कितने प्रकार के परामर्श, मत मतांतर, सिद्धात, शास्त्र लोगों ने समझा दिये हैं, उन सबको आपने खींच लिया। आपने मेरी शल्य चिकित्सा कर दी, सर्जरी कर दी, जनक ने कहा। मैं मुक्त हुआ।

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