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🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*सांई बिना संतोष न पावै,*
*भावै घर तजि वन वन धावै ॥टेक॥*
*भावै पढ़ि गुनि वेद उचारै,*
*आगम निगम सबै विचारै ॥१॥*
*भावै नव खंड सब फिर आवै,*
*अजहूँ आगै काहे न जावै ॥२॥*
*भावै सब तजि रहै अकेला,*
*भाई बन्धु न काहू मेला ॥३॥*
*दादू देखै सांई सोई,*
*साच बिना संतोष न होई ॥४॥*
*(श्री दादूवाणी ~ पद. २२२)*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com
बहुत हैं जिनका ज्ञान उन्हीं को मुक्त नहीं कर पाता, जिनके ज्ञान से उनके स्वयं के जीवन में कोई सुगंध नहीं उठती। जानते हैं, लेकिन जानते हुए भी जानने का कोई परिणाम नहीं होता। शास्त्र उन्हें भली-भांति ज्ञात है, शब्दों के स्वामी हैं; तर्क का श्रृंगार है, विवाद में उन्हें कोई हरा नहीं सकता - लेकिन वे जीवन से हारते चले जाते हैं। उनका स्वयं का ही जाना हुआ उनके जीवन में किसी काम नहीं आता। जो ज्ञान मुक्ति न दे, वह ज्ञान नहीं है। ज्ञान वही है, जो मुक्त करे। सिद्धांत और सत्य एकदम भिन्न हैं। सिद्धांत अर्जित नहीं किया जाता, बड़े सस्ते में मनुष्य पा लेता है - शास्त्रों से, ज्ञानीजनों से; सत्य अर्जित करना होता है। जीवन की जो आहुति चढ़ाता है, उसे ही सत्य उपलब्ध होता है। सत्य मिलता है - स्वयं के श्रम से, स्वयं के बोध से। कोई दूसरा सत्य नहीं दे सकता।
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इस एक सत्य को मनुष्य जितना सम्भालें उतना ही हितकर है। सत्य को स्वयं ही उपलब्ध करना होगा, कोई दूसरा इस जगत में सत्य नहीं दे सकता। यदि ऐसा भरोसा कि कोई दूसरा अवश्य सत्य दे देगा, मनुष्य ने यदि किया तो वो त्रिवेणी पर आकर भी चूक जाएगा और मनोहर धोबी के गधे जैसा हो जाएगा। साधारण जीवन भी मनुष्य दूसरे की आंखो से जी नहीं सकता, लेकिन अनंत की यात्रा पर उधार दृष्टि लेकर चलना चाहता है। इस जीवन में आग लगी हुयी है, प्रतिक्षण मनुष्य जला जा रहा है; यहां उसकी अपनी दृष्टि ही काम में आएगी। मनुष्य के अंतरतम में कोई दूसरा प्रवेश नहीं कर सकता, वहां अपनी ही दृष्टि काम में आएगी।
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कथा उल्लेखनीय है। एक युवा सत्य के खोजी ने अपने गुरु से कहा कि मैं क्या करूं? कैसे मेरा मन शांत हो? कैसे मेरे भीतर का ये अंधेरा मिटे? कैसे ये मूर्च्छा का जाल कटे? कृपया मार्ग बताएं।
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गुरु ने पास ही रखी एक पुस्तक दी और कहा कि खूब तल्लीन होकर पढ़, डूब इसमें; डुबकी लगा और तेरा मन शांत हो जाएगा। युवा ने तन-मन लगा दिया पुस्तक पढ़ने में और कुछ दिनों के पश्चात गुरु के पास आकर बोला कि जब मैं पुस्तक पढ़ता हूं, इसमें डूब जाता हूं; तब मैं किसी और लोक में होता हूं। बड़े दीये जल जाते हैं, कमल खिल जाते हैं। लेकिन पुस्तक पढ़ना बंद किया कि सब समाप्त हो जाता है। फिर वही का वही अंधेरा, बार-२ ऐसा होता है; बार-२ सब खो जाता है।
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गुरु ने हंस कर कहा कि सुन ! दो मित्र तीर्थयात्रा को गए। दोनो साथ-२ चलते, एक के पास जो लालटेन थी दूसरा भी उसी के प्रकाश में चल लेता था। लेकिन एक क्षण ऐसा आया, जब लालटेन वाले दोस्त को अलग मार्ग पर जाना पड़ा, वह तो निश्चिन्त अपने मार्ग पर चला गया। लेकिन दूसरा, जिसके पास लालटेन न थी, वह अचानक अंधेरे में पड़ गया और कहीं न जा सका।
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ठीक ऐसी ही स्थिति शास्त्र के साथ होती है। जब मनुष्य शास्त्र को पढ़ता है तो थोड़ी दूर शास्त्र के प्रकाश में चल लेता है। लेकिन ये शास्त्र का प्रकाश सदा तो साथ रहेगा नहीँ, क्योंकि ये अपना तो है नहीं। इसलिए पुनः अँधेरा घेर लेता है। इस प्रकाश का आविर्भाव भीतर से तो हुआ नहीँ है, इसीलिये ये खो जाता है। और ध्यान रहे ! अंधेरे में अचानक यदि प्रकाश होकर चला जाए तो क्षण भर तो सब प्रकाशित हो जाता है। लेकिन फिर अंधेरा और भी गहरा हो जाता है। पहले तो थोडा दिखाई भी पड़ता था, अब कुछ दिखाई नहीं पड़ता।
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शास्त्र के या ज्ञानीजनों के वचनों के प्रकाश में एक क्षण को तो बिजली जैसे चमक जाती है, सब स्पष्ट हो जाता है; लेकिन फिर ऐसा अंधेरा घेरता है - जैसा पहले नहीं था। उस गुरु ने कहा कि अब शास्त्र बंद कर, अब भीतर का दीया जला। दूसरे के प्रकाश में शाश्वत और सनातन की यात्रा नहीं हो सकती, उसके लिए स्वयं का ही प्रकाश चाहिए।

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