गुरुवार, 24 अक्टूबर 2019

गुरुदेव का अंग ९९/१०२

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ Tapasvi Ram Gopal
(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)
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*दादू हूं की ठाहर है कहो, तन की ठाहर तूं ।* 
*री की ठाहर जी कहो, ज्ञान गुरु का यूं ॥९९॥* 
मनुष्य के बाह्यज्ञान प्राप्त करने में बहुत से सांसारिक प्रतिबन्धक हैं । उन प्रतिबंधकों के मध्य में सबका मूल कारण सब से प्रधान विकार अहंकार ही सर्वसम्मत प्रतिबन्धक है । उसके निराकरण के लिये महाराज लिखते हैं - हूँ की ठाहर है कहो । अर्थात् जब तक जीव इस दुष्ट अहंकार से युक्त रहेगा, तब तक मुक्ति की बात सोची भी नहीं जा सकती । विवेक चूड़ामणि में लिखा है - 
“इस मांस पिण्ड में इसके द्वारा बुद्धिकल्पित अभिमानी जीव में अहम्बुद्धि छोड़ो और अपने आत्मा को तीनों कालों में अबाधित और अखण्ड ज्ञानस्वरूप जानकर शान्ति लाभ करो ।” 
सम्पूर्ण कार्यकर्तृत्व परमेश्वर में ही घटित हो सकता है; क्योंकि जिसके द्वारा प्राणों में प्राणन करने की शक्ति है और जो मन से भी नहीं जाना जाता, किन्तु मन में मनन करने की शक्ति जिससे आती है वह ब्रह्म है । जीव तो मिथ्याभिमान ही करता है कि ‘मैं करता हूँ ।’ इसलिये ‘मैं करता हूँ’ के स्थान पर ‘ईश्वर करता है’ – ऐसा कहना चाहिये । तन की ठाहर तूँ-इसका भाव वह है कि ‘सूक्ष्म शरीर में भी वह ही कार्य कर रहा है’– ऐसा समझना चाहिये । 
री की ठाहर जी का तात्पर्य यह है- ‘री’ अविद्या का नाम है, उसके स्थान पर ‘जी’ - ऐसा कहो । अर्थात् जीव का वास्तविक स्वरूप तो सच्चिदानन्द स्वरूप ही है । जीवभाव तो अविद्याकल्पित है । अतः जहदजहल्लक्षणा वृत्ति द्वारा जीवांश को त्यागकर ‘मैं ब्रह्मस्वरूप हूँ’- ऐसी उपासना करनी चाहिये । यही गुरुप्रदत्त ज्ञान है ॥९९॥ 
*गुरु ज्ञान का अंग* 
*दादू पंच स्वादी पंच दिशि, पंचे पंचों बाट ।* 
*तब लग कह्या न कीजिये, गहि गुरु दिखाया घाट ॥१००॥* 
इस शरीर में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं । उनके पाँच ही नियत विषय हैं; जैसे शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गन्ध । ये इन्द्रियाँ इन्हीं पाँचों मार्गों से चलती रहती है । मन भी इन के अधीन होकर पाँचों विषयों में आसक्त होता है । फिर इन से जीव को राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं । राग-द्वेष के अधीन हुआ जीव ज्ञान से च्युत हो जाता है । गीता में लिखा है - 
“इन्द्रियों का इन्द्रियों के विषयों में राग-द्वेष व्यवस्थित है । उनके वश में नहीं आना चाहिये, क्योंकि ये राग-द्वेष ज्ञान के शत्रु हैं ।” 
“इन्द्रियों के स्पर्श से होने वाले भोग दुःख के कारण हैं और आदि अन्त वाले हैं । अतः बुद्धिमान् इन में रमण नहीं करते ।” 
अतः परमार्थ को जानकर आदि-अन्त वाले भोगों में प्रेम नहीं करना चाहिये ॥१००॥ 
*दादू पंचों एक मत, पंचों पूर्या साथ ।* 
*पंचों मिल सन्मुख भये, तब पंचों गुरु की बाट ॥१०१॥* 
गुरुज्ञान द्वारा पाँचों इन्द्रियाँ अपने अपने विषय को त्यागकर आत्माभिमुख हो जाय, तब सब इन्द्रियों का एक ही मार्ग है - ऐसा समझना चाहिये । उस समय साधक मन-बुद्धि-इन्द्रियों को जीतकर मोक्षपरायण हो जाता है । उस समय मुनि इच्छा, भय, क्रोध,- इनको त्याग कर सदा मुक्त हो जाता है ॥१०१॥ 
*सतगुरु विमुख ज्ञान* 
*दादू ताता लोहा तिणें सौं, क्यूँ कर पकड़या जाइ ।* 
*गहन गति सूझै नहीं, गुरु नहीं बूझै आइ ॥१०२॥* 
इस पद्य में ज्ञान से बहिर्मुख व्यक्ति का वर्णन है । जैसे अग्नि से सन्तप्त लोहे के टुकड़े को तृण से नहीं पकड़ा जा सकता, इसी प्रकार कामक्रोधादि की अग्नि से जलते हुए मन को भी किसी उपाय के विना पकड़ नहीं सकते । वह गुरु के पास जाकर इस मनोनिग्रह के उपाय पूछता भी नहीं; क्योंकि अहंकारी है । और स्वयं कुछ जानता नहीं; क्योंकि उसने कभी सत्संग किया नहीं । अतः जिज्ञासु साधक को चाहिये कि वह गुरु के पास जाकर मन के निग्रह के उपाय पूछे और तद्नुसार प्रयत्न करे ॥१०२॥
(क्रमशः)

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