शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2019

गुरुदेव का अंग १०३/१०६

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ Tapasvi Ram Gopal
(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)
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*गुरुमुख कसौटी* 
*दादू औगुण गुण कर माने गुरु के, सोई शिष्य सुजाण ।* 
*सतगुरु औगुण क्यों करै, समझै सोई सयाण ॥१०३॥* 
वही शिष्य उत्तम होता है जो गुरु के द्वारा ताडननिमित्त की गयी क्रूरता या क्रोधादि अवगुणों को भी गुण मानता है; क्योंकि गुरु शिष्य के प्रति कभी अवगुण कर ही नहीं सकते । गुरु को तो शिष्य अतिप्रिय होता है । ऐसा शिष्य ही चतुर होता है । महाभारत में लिखा है- 
“गुरु को आचार्य समझना चाहिये । उसका कभी अपमान नहीं करना चाहिये । न कभी उसकी निन्दा करनी चाहिये; क्योंकि गुरु तो सर्वदेवमय होता है । गुरु में दोष निकालने वाला दुर्लभ, विकल, मुर्ख, विवेकहीन, नपुंसक, नीच कर्म करने वाला अतएव नीच होता है । 

गुरु की बुराई करने से गदहा बनता है, निन्दा करने वाला कुत्ता । उनकी वस्तुओं को भोगने वाला कृमि तथा उनसे ईर्ष्या करने वाला कीड़ा बनता है” ॥१०३॥ 
*सोने सेती बैर क्या, मारे घण के घाइ ।* 
*दादू काटि कलंक सब, राखै कंठ लगाइ ॥१०४॥* 
सुनार का सोने से कोई वैर भाव तो होता नहीं कि वह उसे अग्नि में तपा कर घन पर रख कर उसे हथौड़े से पीटता है; किन्तु वह तो उसको अग्नि में तपा कर, शुद्ध कर, गले में धारण करने योग्य भूषण बनाता है । इसी तरह गुरु भी शिष्य को ताड़ना द्वारा ज्ञानयोग्य बनाता है । लिखा है- 
“माता-पिता द्वारा ताड़ना दिया पुत्र और गुरु से शिक्षित शिष्य एवं घन के द्वारा ताड़ित स्वर्ण मनुष्यों में भूषणस्वरूप हो जाते हैं ॥” 
“गुरु के कठोर वचनों द्वारा तर्जना दी जाने पर शिष्य महत्त्व को प्राप्त हो जाते हैं ।” 
“लालना(प्यार) में बहुत दोष हैं, एवं ताड़ना में बहुत गुण हैं । इसलिये शिष्य और पुत्र को ताड़ना भी देनी चाहिये । ज्यादा लाड़-प्यार अच्छा नहीं होता ॥१०४॥” 
*पाणी माहैं राखिये, कनक कलंक न जाहि ।* 
*दादू गुरु के ज्ञान सों, ताइ अगनि में बाहि ॥१०५॥* 
हजारों वर्ष जल में रखने पर भी सुवर्ण का मैल दूर नहीं होता । यदि उसको अग्नि में तपाकर हथौड़े से पीटा जाय तो वह तत्काल शुद्ध(निर्मल) हो जाता है । इसी तरह शिष्य के मन में भी अविद्या, आवरण, विक्षेप आदि दोष भरे हैं । उनको दूर करने के लिये यदि गुरु उसको शिक्षा एवं ताड़ना देते हैं या तपश्चर्यादि कराकर कष्ट देते हैं तो उसका मन शुद्ध होकर ज्ञानप्राप्ति योग्य बन जाता है । शिष्य उन ताड़नाओं को कष्ट नहीं मानता । अतः गुरुज्ञान से ही मन शुद्ध होता है ॥१०५॥ 
*दादू माहैं मीठा हेत करि, ऊपर कड़वा राख ।* 
*सतगुरु सिष कौं सीख दे, सब साधों की साख ॥१०६॥* 
गुरु अपने शिष्य को आन्तरिक स्नेह से सींचता हुआ, ऊपर से वाणी द्वारा कठोर वचनों से ताड़ित कर शिक्षा प्रदान करते हुए उसे साधना योग्य बना देते हैं । सभी साधुओं की यही शिक्षापद्धति रही है ॥१०६॥ 
(क्रमशः)

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