बुधवार, 23 अक्टूबर 2019

= १२९ =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*निरंजन जोगी जान ले चेला,*
*सकल वियापी रहै अकेला ॥टेक॥*
*खपर न झोली डंड अधारी,*
*मढ़ी न माया लेहु विचारी ॥१॥*
*सींगी मुद्रा विभूति न कंथा,*
*जटा जाप आसन नहिं पंथा ॥२॥*
*तीरथ व्रत न वनखंड वासा,*
*मांग न खाइ नहीं जग आसा ॥३॥*
*अमर गुरु अविनाशी जोगी,*
*दादू चेला महारस भोगी ॥४॥*
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साभार ~ oshostsang.wordpress.com

०१. *मुक्तपुरुष न स्तुति किये जाने पर प्रसन्न होता है, और न निंदित होने पर क्रुद्ध होता है। वह न मृत्यु में उद्विग्न होता है, न जीवन में हर्षित होता है। ज्ञानी को मृत्यु में कोई विरोध नहीं है, न जीवन में कोई आग्रह। हर वस्तु के बाहर खड़ा देखता है। जीवन में जीवन के बाहर, मृत्यु में मृत्यु के बाहर। स्तुति जब की जाती, तब सुन लेता। निंदा जब की जाती, तब सुन लेता। न निंदा उसे डिगा पाती, कुपित कर पाती न स्तुति उसे प्रफुल्लित कर पाती। उद्विग्नता उसकी चली गयी, जो बाहर खड़ा होने की कला सीख गया।*
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ध्यान रहे हर्ष भी एक प्रकार की उद्विग्नता है और विषाद भी एक प्रकार की उद्विग्नता है। एक प्रकार का ज्वर। हम हर्ष में भी बहुत ज्यादा कंपित हो जाते हैँ। कहीं से अपार धन मिल गया, हृदय इतने जोर से धड़कने लगता है, कितनों का तो हार्टफेल इसीलिए हो जाता है। एकदम सफलता मिल गयी। सफलता बड़ी चिंता ले आती है।
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०२. *शांत बुद्धिवाला पुरुष न लोगों से भरे नगर की ओर भागता है, और न वन की ओर ही। वह सभी स्थिति और सभी स्थान में समभाव से ही स्थित रहता है। जो व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध हुआ, साक्षी को उपलब्ध हुआ, तुरीय का जिसने स्वाद लिया, अब वह भीड़ की तरफ नहीं भागता। भीड़ में क्या रस, दूसरे में तो तभी तक स्वाद होता है जब तक स्वयं का स्वाद नहीं लिया।*
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याद रहे जो जहां है, जैसा है, यदि वहीं सुखी नहीं है तो फिर कहीं भी सुखी नहीं हो सकता। और जो जहां है, जैसा है, वहीं सुखी है, वह कहीं भी सुखी हो सकता है। इसका अर्थ यह भी मत समझ लेना कि ज्ञानी भीड़ से भागता है। इसलिए अष्टावक्र कहते हैं, शांत बुद्धिवाला पुरुष न लोगों से भरे नगर की ओर भागता है, और न वन की ओर ही।
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क्योंकि वह भी फिर दूसरा उपद्रव हो गया। कुछ लोग हैं जो कहते हैं, भीड़ में नहीं जाएंगे, भीड़ में अच्छा नहीं लगता, हम तो जंगल चले, हम तो संसार के वासी हैं। परन्तु यह बात भी बंधन हो गयी। अब हमे दूसरे की विद्यमानता में अशांति होने लगी। पहले दूसरे की विद्यमानता में आनंद होता था, अब दुख होने लगा। परन्तु हर अवस्था में नजर दूसरे पर रही। पहले दूसरे की तरफ भागते थे हम, अब दूसरे से भागने लगे, परन्तु नजर दूसरे पर रही। अब भी अपने पर आना नहीं हुआ।
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अपने पर वही मनुष्य आता है, जो न दूसरे की तरफ भागता है, न दूसरे से भागता है। न तो भागो स्त्री की तरफ, न स्त्री से भागो। न भागो धन की तरफ, न धन को छोडकर भागो। न भागो पुरुषों की तरफ, न पुरुषों को भागो छोडकर। भागो ही मत। जहां हो, जैसे हो, वहीं परमात्मा पूरा का पूरा उपलब्ध है। भाग कर कहां जा रहे? क्या हमने कभी सोचा की परमात्मा कहीं और थोड़ा ज्यादा है? हम सोचते हैं, इस स्थान पर कम परमात्मा हैं, चलो किसी घने जंगल में, सम्भवतय वहा परमात्मा ज्यादा हो ? काशी और प्रयाग में थोड़ा ज्यादा है? तो हम मुर्ख हैँ, यदि ऐसे सोचते हैं तो। क्यों की परमात्मा तो सभी जगह समान रूप से विद्यमान हैं।
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*जो जहां है, जैसा है, उसमें ही रस आ जाए, तो मुक्ति आयी, मोक्ष आया। अन्यथा को छोड़ो। अन्य होने की दौड़ छोड़ो। किसी और स्थान में कहीं स्वर्ग है, ऐसी भ्रांति छोड़ो। इसी भ्रांति के कारण हमे दिखायी नहीं पड़ रहा है परमात्मा।* क्योंकि हम कहीं और देख रहे हैं, दूर हमारी आंखें उलझी हैं, तारों पर, चंद्रमा पर और परमात्मा बहुत पास है। परमात्मा वहीं बैठा है जहां हम। परमात्मा उसी स्थान पर अवस्थित है जहां हम हैं । *हममें और परमात्मा में अणु भर भी दुरी नहीं है। इसलिए यात्रा तो करनी ही नहीं है। तीर्थयात्रा सब यात्राओं से मुक्त हो जाने का नाम है।*

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