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*सहज रूप मन का भया, जब द्वै द्वै मिटी तरंग ।*
*ताता शीला सम भया, तब दादू एकै अंग ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*निष्पक्ष मध्य का अंग ८८*
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एक हि तज्यों एक बल बाँधै, घर में होय उपाधि ।
जन रज्जब परिहर पख दोन्यों, सहजै होय समाधि ॥३७॥
दो नारी वाला एक से प्रेम करे तो वह उसे राग के बल से बाँध लेती है और दूसरी द्वेष करती है, इससे घर में झगड़ा होने लगता है, वैसे ही एक पक्ष को त्यागने से एक बल पूर्वक बाँधता है और उपाधि बढती है । अत: हिन्दू-मुसलमान दोनों ही पक्षों को छोड़े तभी सहज समाधि होती है ।
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खैंचा तांणा द्वै द्वै मिटी, तब घर में आनन्द ।
ज्यों रज्जब काढ्यां१ रई२, सहज गये दधि द्वन्द ॥३८॥
जैस दही में से मथानी२ निकाल१ लेने पर दही की हलचल मिट जाती है, वैसे ही हिन्दू-मुसलमान दोनों की दोनों पक्ष मिट जाती है तब अनायास द्वन्द्वों की खेंचाताँन मिटकर अन्त:करण में आनन्द हो जाता है ।
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लोह जलि१ पावक परसि२, शीत सलिल पाषाण ।
रज्जब उभय अलाहिदा३, समझ्या सत्य वखाण४ ॥३९॥
अग्नि के स्पर्श१ से लोहा जलने२ लगता है और शीत से जल पत्थर हो जाता है, इसलिये समझे हुये निष्पक्ष संत का कथन४ सत्य ही है कि शीत-उष्ण दोनों ही अलग३ रहना चाहिये ।
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रज्जब चलै महन्त मुनि, मध्य मते१ के मागि२ ।
शीत उष्ण मन वन दहैं, दोन्यों दीसै आगि३ ॥४०॥
अति उष्णता और अति शीत दोनों ही वन को जला देते हैं, वैसे ही प्रिय पक्ष और द्वैषी पक्ष दोनों ही मन को जलाते हैं, इससे दोनों ही अग्नि३ रूप भासते हैं, इस कारण ही निष्पक्ष महन्त-मुनिजन मध्य मार्ग२ के सिद्धान्त१ में ही चलते हैं ।
(क्रमशः)

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