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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ महामंडलेश्वर स्वामी अर्जुनदास जी महाराज,श्री दादूद्वारा बगड,झुंझुनू ।
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)
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*कठोरता*
*दादू कहि कहि मेरी जीभ रही, सुनि सुनि तेरे कान ।*
*सतगुरु बपुरा क्या करै, जो चेला मूढ़ अजान ॥१११॥*
दुराग्रही मंदबुद्धि शिष्य को गुरु भी शिक्षा देने में असमर्थ है; क्योंकि वह हठी और अल्पबुद्धि होता है । बार-बार कहने-सुनने से भी उसकी बुद्धि ज्ञान को ग्रहण करने में समर्थ नहीं होती । इस में गुरु का कोई दोष नहीं । ऐसा शिष्य हेय माना गया है ।
श्रीमद्भगवतगीता में कहा गया है; श्रद्धा ना रखने वाला, अज्ञानी एवं संशयालु शिष्य नष्ट हो जाता है । संशयात्मा का तो विनाश ही होता है ।
भृतहरि जी महाराज ने लिखा है कि; विधाता ने जगत में ऐसी कोई वस्तु नहीं बनाई जिसका कोई उपाय न बनाया हो किंतु मूर्ख की चित्त वृत्ति को नष्ट करने के लिए विधाता ने पराजय स्वीकार कर ली ।
मुर्ख के पांच लक्षण होते हैं-
१.वह अंहकारी होता है
२.वह खोटे वचन बोलता है,
३.वह आलसी होता है,
४.प्रमादी और
५.दुराग्रहग्रस्त होता है ।
अतः ऐसे मूर्ख शिष्यों को उपदेश नहीं देना चाहिए ।
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*गुरु शिष्य प्रबोध*
*एक शब्द सब कुछ कह्या, सतगुरु सिष समझाइ ।*
*जहाँ लाया तहँ लागै नहीं, फिर फिर बूझै आइ ॥११२॥*
गुरु ने तो एक राम नाम शब्द से अथवा “तूं ब्रह्मस्वरूप है”- इस महावाक्य से शिष्य को जो ज्ञान देना था, दे दिया; किन्तु दृढ़ श्रद्धा के अभाव से वह गुरुदेव से, बार बार आकर, तरह-तरह के प्रश्न पूछता है-रामनाम साधन के अतिरिक्त और कोई साधन नहीं है क्या? रामनाम के जप से क्या फल होता है-स्वर्ग या मोक्ष? ये स्वर्ग-मोक्ष भी इसी जीवन-काल में ही मिल जाते हैं या मरने का बाद मिलेंगे?
ऐसा शिष्य संशयरूपी सर्प से ग्रस्त होता है, अतः इसे समझाने का कुछ भी फल नहीं होता । अपितु संशय सर्प द्वारा ग्रस्त होने के कारण उसकी मृत्यु ही होता है । गीता में भी संशयग्रस्त का विनाश ही फल बतलाया है । अतः गुरुवचनों में कभी संशय नहीं करना चाहिये ॥११२॥
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*ज्ञान लिया सब सीख सुणि, मन का मैल न जाइ ।*
*गुरु बिचारा क्या करै, सिष विषै हलाहल खाइ ॥११३॥*
जिन्होंने श्रुति-स्मृति के ज्ञाता विद्वानों से वेदांतजन्य ज्ञान जाना भी सुना भी, पढ़ा भी, उसे कण्ठस्थ भी किया, किंतु विषयासक्त मन होने से हृदय में धारण नहीं किया । ऐसे मनुष्य अविवेकी होते हैं । प्रतिक्षण उनके पाप बढ़ते रहते हैं और उनकी सदगुरु में भी अपूज्य तत्व की भावना बढ़ जाती है । वे धन-मान के कारण कभी ज्ञान मार्ग का अनुसरण नहीं करते, किंतु अधम गति को प्राप्त होते हैं ।
श्रीमद्भगवतगीता में इसी अभिप्राय से लिखा है :: नास्तिक बुद्धि को धारण करने वाले, परलोक साधन से रहित, अल्प सुख में ही रमण करने वाले, हिंसात्मक कर्म करते हुए पुरुष जगत के शत्रु है ।
इसी अभिप्राय से महाराज श्रीदादू जी कह रहे हैं "विषे हलाहल खाई" ऐसे अविवेकी व्यक्तियों का यदि कल्याण नहीं हो तो इसमें गुरु का क्या दोष है ??
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*सतगुरु की समझै नहीं, अपणै उपजै नांहि ।*
*तो दादू क्या कीजिए, बुरी बिथा मन मांहि ॥११४॥*
अविवेकी मूढ शिष्य के बारे में ब्रह्मऋषि श्रीदादू जी महाराज कहते हैं :: जो शिष्य सद्गुरु की शिक्षा नहीं मानता और भोगों की आशा भी नहीं छोड़ता । स्वयं बुद्धि संपन्न है नहीं और विवेकी भी नहीं है । उसके मन में भोगों की आशा प्रतिक्षण बढ़ती ही रहती है । उसका शास्त्र भी क्या कर सकते हैं?
उपनिषद में :: जिसके स्वयं बुद्धि नहीं उसका शास्त्र भी क्या भला कर सकते हैं । जैसे अंधे का, दर्पण भी क्या सहयोग कर सकता है ?
उपनिषद में :: नीम वृक्ष यदि चंदन, चंपा या आम के वृक्षों के बीच ही, लताओं से युक्त हो तथा केतकी के अमृत रूपी जल से सिंचित हो, तो भी वह अपनी कटुता को नहीं छोड़ पाता ।
(क्रमशः)

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