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*द्वितीय भाग : शब्द*, *राग गौड़ी १, गायन समय दिन ३ से ६*
साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, राज. ॥
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८३ - शँख ताल
वाल्हा१ सेज हमारी रे,
तूँ आव हूं वारी रे, हूं दासी तुम्हारी रे ॥टेक॥
तेरा पँथ निहारूँ रे,
सुन्दर सेज संवारूँ रे, जियरा तुम पर वारूँ रे ॥१॥
तेरा अँगड़ा पेखूँ रे,
तेरा मुखड़ा देखूँ रे, तब जीवन लेखूँ रे ॥२॥
मिल सुखड़ा दीजै रे,
यहु लाहड़ा२ लीजै रे, तुम देखैं जीजै रे ॥३॥
तेरे प्रेम की माती रे,
तेरे रंगड़े राती रे, दादू वारणे जाती रे ॥४॥
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हे प्रियतम१ परमेश्वर ! आप हमारी हृदय शय्या पर पधारिये, मैं आपकी बलिहारी जाती हूं । मैं आप की दासी हूँ,
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आपका मार्ग देख रही हूं और आपके लिए हृदय रूप सुन्दर शय्या दैवी - गुणों से सजा रही हूं, अपने प्राण आप पर निछावर करने को तैयार हूँ, आप पधारिये ।
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मैं विचार द्वारा सँशय - विपर्य्य रहित आपका स्वरूप देखूँगी, और अभेद दर्शन रूप मुख देखूँगी तब ही अपने जीवन को सफल समझूँगी ।
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आप मुझसे मिलकर मुझे परमानँद दे कर जीवन प्रदान करने का महान् लाभ२ लें । मैं आपको देखने से ही जीवित रह सकूंगी ।
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मैं आपके प्रेम में मस्त होकर आपके चिन्तन रूप रँग में अनुरक्त हूं और आपकी बलिहारी जाती हूँ ।
(क्रमशः)

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