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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)
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*सत्यासत्य गुरु पारख लक्षण*
*दादू माया मांहै काढि करि, फिर माया में दीन्ह ।*
*दोऊ जन समझैं नहीं, एको काज न कीन्ह ॥१२०॥*
*दादू कहै, सो गुरु किस काम का, गहि भ्रमावै आन ।*
*तत्त बतावै निर्मला, सो गुरु साध सुजान ॥१२१॥*
*तूं मेरा, हूं तेरा, गुरु सिष किया मंत ।*
*दोन्यों भूले जात हैं, दादू बिसर्या कंत ॥१२२॥*
*दुहि दुहि पीवै ग्वाल गुरु, सिष है छेली गाइ ।*
*यह औसर यों ही गया, दादू कहि समझाइ ॥१२३॥*
*शिष गोरु, गुरु ग्वाल है, रक्षा कर कर लेइ ।*
*दादू राखै जतन कर, आनि धणी को देय ॥१२४॥*
इन पद्यों में सत्य तथा असत्य गुरु के लक्षण बता रहे हैं । असत्य गुरु शिष्य को स्त्री पुत्रादिरूप गृहस्थ आश्रम से बाहर निकाल कर फिर अपने सम्प्रदाय विशेष के चिन्हों से चिन्हित कर, सम्प्रदायविशेष की दीक्षा देकर ‘आज से तुम वैष्णव या शैव हो’- ऐसे द्वैत में फँसा कर व्यवहार तथा परमार्थ-दोनों से स्वयं भ्रष्ट होकर शिष्य को भी भ्रष्ट कर देता है । दोनों में से किसी का भी कल्याण नहीं होता; क्यों कि उन्होंने कल्याण का मार्ग ही नहीं अपनाया । ऐसे गुरु स्वार्थी होते हैं और शिष्य भी धनादि के लोभ से बन जाते हैं ।
सच्चा गुरु वह होता है, जो परब्रह्म में शिष्य की निष्ठा को दृढ़ करके अद्वैत मार्ग या भक्तिमार्ग में उसे प्रवृत्त करे । असद्गुरु या शिष्य तो एक-दूसरे की मिथ्या प्रशंसा करने के कारण गधों के समान ही हैं । वे परमात्मा को भूल गये ।
इस विषय में एक दृष्टांत द्वारा सत्य-असत्य का निर्णय किया जा रहा है । जैसे कोई गाय चराने वाला गोपालक वन में ही किसी गाय का दूध निकाल कर पी ले और सायंकाल उस दूध रहित गाय को पुनः उसके स्वामी को लौटा दी जाय, तो वह गोपालक व्यवहार में सच्चा नहीं कहलाता । सच्चा गोपलाक तो वही माना जाता है जो वन में प्रतिदिन गाय को हरा हरा घास चरा कर, सिंह व्याघ्र आदि हिंसक प्राणियों से उसकी रक्षा करता हुआ सायंकाल दूध से भरी उस गाय को पुनः स्वामी को सम्हला दें ।
इसी प्रकार जो गुरु काम-क्रोधादि दुर्गुणों में जाते हुए अपने शिष्य को संयमादि साधनों द्वारा बचावे, ज्ञानोपदेश द्वारा विषयवासनाओं से शिष्य को दूर कर आत्मसाक्षात्कार योग्य बना दे । इससे गुरु और शिष्य दोनों का कल्याण होता है । अन्यथा तो मानव जीवन को भोगों में क्षीण करने उन दोनों का अधःपतन होगा ॥१२०-१२४॥
(क्रमशः)

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