शनिवार, 26 अक्टूबर 2019

= *विवेक समता का अंग ८९(१/४)* =

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*दादू जब दिल मिली दयालु सौं, तब अंतर नांही रेख ।*
*नाना विधि बहु भूषणां, कनक कसौटी एक ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*विवेक समता का अंग ८९* 
इस अंग में विवेकपूर्वक समता का विचार कर रहे हैं ~ 
घर घर दीपक देखिये, पावक परस्यों एक । 
यूं समझे एकहि हुये, रज्जब संत अनेक ॥१॥ 
घर घर में दीपक जलते हुये देखे जाते हैं, किन्तु उनका स्पर्श करने पर सब अग्नि एक ही ज्ञात होता है इसी प्रकार अनेक ज्ञानी संत भी ज्ञान द्वारा एक ही होकर रहते हैं यही विवेक समता है । 
एक सरोवर सब भरैं, भाव भिन्न घर जाँहिं । 
रज्जब सब मिल एक ह्वै, उलटे सरवर माँहिं ॥२॥ 
सभी जाति के जन एक सरोवर से अपने अपने पात्रों में जल भरते हैं, पीछे ब्राह्मण क्षत्रियादि भिन्न भिन्न भावों को लेकर घर जाते हैं यदि उन पात्रों का जल पीछा सरोवर में डाल दे तो सब मिल कर ही एक ही हो जाते हैं, वैसे ही आत्मा शरीरों में आकर भिन्न भिन्न तथा भिन्न जाति का भासता है वह पुनः मिलकर एक ही हो जाता है । इस प्रकार विवेक द्वारा समाता ही भासती है । 
एक हिं कंचन काटि कर, बहु भूषण करि जाँहि । 
रज्जब भान्यो१ मिल गये, ताके२ ताही३ माँहिं ॥३॥ 
एक ही सुवर्ण की डली को काट कर उससे बहुत से भूषण बनाये जाते हैं, फिर उन सब को तोड़१ कर गलाने से वे सभी उस सुवर्ण२ के सुवर्ण३ में ही मिल जाते हैं, वैसे ही आत्मा कर्मो द्वारा ब्रह्म से भिन्न भासता है । ज्ञान द्वारा सर्व कर्म नष्ट होने से ब्रह्म में मिलकर एक हो जाता है । 
सांई सबका एक है, सब समझे ता माँहिं । 
जन रज्जब रामहिं भजे, तिनके दूजा नाँहिं ॥४॥ 
प्रभु सब का एक ही है, सभी ज्ञानी उसमें रत्त हैं, जो राम का भजन करते हैं, उनकी दृष्टि में कुछ भी द्वैत नहीं है । 
(क्रमशः)

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