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🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू मेरा वैरी मैं मुवा, मुझे न मारै कोइ ।*
*मैं ही मुझको मारता, मैं मरजीवा होइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ जीवित मृतक का अंग)*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com
*श्री कृष्ण कहते हैं, अपनी शक्ति को पहचानकर, और अपनी शक्ति परमात्मा की ही शक्ति है, और अपनी परम ऊर्जा को समझकर, और अपनी परम ऊर्जा परमात्मा की ही ऊर्जा है, इंद्रियों को वश में कर मन से, मन को वश में ला बुद्धि से और बुद्धि की बागडोर दे दे परमात्मा के हाथ में। और फिर इस दुर्जय काम के तू बाहर हो जाएगा, इस दुर्जय वासना के तू बाहर हो जाएगा।*
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जो जितना गहरा है, उतना ही परमसत्य है, और जो जितना गहरा है, उतना ही शक्तिवान है, और जो जितना गहरा है, उतना ही भरोसे योग्य है। जो जितना ऊपर है, उतना भरोसे योग्य नहीं है। लहरें भरोसे योग्य नहीं हैं, सागर की गहराई में भरोसा है। ऊपर जो है, वह केवल आवरण है, गहरे में जो है, वह आत्मा है। इसलिए तू ऊपर को गहरे पर मत आरोपित कर, गहरे को ही ऊपर को संचालित करने दे। और एक एक कदम श्री कृष्ण पीछे हटाने की बात करते हैं। कैसे?
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इंद्रियों को मन से। साधारणत: इंद्रियां अभ्यास के अनुसार चलती हैं, मन के अनुसार नहीं, क्योंकि मन के अनुसार हमने उन्हें कभी चलाया नहीं होता। इंद्रियां अभ्यास के अनुसार चलती हैं। इंद्रियों से हम इतने वशीभूत होकर जीते हैं कि इंद्रियां जब अड़चन में होती हैं, तभी मन की आवश्यकता पड़ती है। अन्यथा मन को वे कहती हैं कि तुम आराम करो, तुमसे कोई लेना देना नहीं है, हम अपना काम कर लेंगे। पता ही नहीं चलता।
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हमने सारा काम अपनी इंद्रियों पर सौंप दिया है, अब वे हमें चलाती रहती हैं। मन को बीच में कब लाया जाएगा, जब हम मन को केवल सेवा के लिए न लाते हों, स्वामी के लिए लाते हों। बुद्धि को हम तभी बीच में लाते हैं। जब मन उलझ जाता है, उलझ जाता अर्थात यह कि हम जब कोई ऐसी वस्तु पाते हैं जो मन हल नहीं कर पाता, कोई संशय खड़ा हो जाता, मन के बाहर होता।
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यह जो बुद्धि है, इसको भी सब कुछ न सौंप दें, क्योंकि यह भी परम नहीं है। परम तो इसके पार है, जहां से यह बुद्धि भी आती है। तो यह भी हो सकता है, एक व्यक्ति बुद्धि से मन को वश में कर ले, मन से इंद्रियों को वश में कर ले, परन्तु बुद्धि के वश में हो जाए तो अहंकार से भर जाएगा। बुद्धि अहम् हो जाएगी। बुद्धि बहुत अहंकारी है। वह कहेगा, मैं जानता, सब मुझे पता है। मैंने मन को भी जीता, इंद्रियों को भी जीता, अब मैं बिलकुल ही अपना सम्राट हो गया हूं। तो यहां भी अटक जायेगा बुद्धि सोच सकती है, विचार सकती है। परन्तु जीवन का सत्य अगम है, बुद्धि की पकड़ के बाहर है। बुद्धि कितना ही सोचे, सोच-सोचकर कितना ही पाए फिर भी जीवन एक रहस्य है, और उसके द्वार बुद्धि से नहीं खुलते।
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हां, बुद्धि भी जब उलझती है, तब परमात्मा को याद करती है। परन्तु जब तक सुलझी रहती है, तब तक कभी याद नहीं करती। धंधा बिलकुल ठीक चल रहा है, दुकान ठीक चल रही है, पैसा ठीक आ रहा’ है, लाभ ठीक हो रहा है, गणित ठीक हल हो रहा है, विज्ञानं की खोज ठीक चल रही है, परमात्मा की कोई याद नहीं आती। जब दुख में पड़ती है बुद्धि, तब परमात्मा की याद आती है। जब उलझती है, जब लगता है, अपने से अब क्या होगा?
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जो हम कर सकते थे, वह हम कर चुके। जो हम कर सकते हैं, वह हम कर रहे हैं। परन्तु अब हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है। तब एकदम हाथ जुड़ जाते हैं कि हे भगवान ! तू कहां है? परन्तु अभी तक कहां था भगवान? यह डाक्टर की बुद्धि थक गई, अपनी बुद्धि थक गई, अब भगवान है?
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नहीं, इतने से नहीं चलेगा। जब बुद्धि हारती है, तब समर्पण का कोई आनंद नहीं। हारे हुए समर्पण का कोई अर्थ है? जब बुद्धि जीतती है और जब सुख चरणों पर लोटता है और जब लगता है, सब सफल हो रहा है, सब ठीक हो रहा है, बिलकुल सब सही है, तब जो व्यक्ति परमात्मा को स्मरण करता है, उसकी बुद्धि परमात्मा के लिए समर्पित होकर परमात्मा के वश में हो जाती है।
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*इंद्रियों को दें मन के हाथ में, मन को दें बुद्धि के हाथ में, बुद्धि को दे दें परम सत्ता के हाथ में।*
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