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*सब ही मृतक देखिये, किहिं विधि जीवैं जीव ।*
*साधु सुधारस आणि करि, दादू बरसे पीव ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*कमला काढ का अंग ९४*
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नर उर१ हिम गिरि ज्यों झरै, साधू सूरज देख ।
जन रज्जब तप ताप में, विगता२ विगत३ विशेख ॥१७॥
सूर्य को देखकर जैसे हिमालय पर्वत झरने लगता है, वैसे ही संत को देखकर नर का हृदय१ माया को त्याग कर रूप झरने लगता है किन्तु संत उपदेश रूप ताप में और सूर्य के ताप में विशेष भेद रह जाता है जिसको ज्ञानी२ ही जानते३ हैं अर्थात सूर्य का ताप तपाता है और संत का उपदेश रूप ताप शीतल करके मुक्ति प्रदान करता है ।
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संसार सुई ज्यों उठ मिलै, साधू चुम्बक चाहि१ ।
सारा२ किसही का नहीं, बाबै३ वस्तु सु बाहि४ ॥१८॥
जैसे सुई अपने आप उठकर चुम्बक पत्थर से मिलती है, वैसे ही संसारी प्राणी अपनी इच्छा१ से ही संतो से मिलते हैं । इसमें किसी का बल२ नहीं है, यह तो भगवान३ ने ही संतों में वस्तु बल रक्खा४ है ।
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माया मन मिश्रित१ सदा, नख शिख सानी२ राम ।
रज्जब रिधि३ काढण कठिन, महा सु मुश्किल काम ॥१९॥
माया और मन सदा ही मिले१ ही रहते हैं, राम ने ही प्राणी में नख से शिखा तक माया मिला२ रक्खी है मन से माया३ निकालना कठिन ही क्या महा कठिन काम है ।
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जन रज्जब नर नाज में, उभय ठौर भरपूर१ ।
बाणी पाणी भेइये, निकसै शक्ति२ अंकूर ॥२०॥
नर और नाज दोनों स्थानों में माया और अंकुर परिपूर्ण१ है । संतों की वाणी द्वारा नर से माया२ निकलती है और जल से भिगोने पर नाज से अंकुर निकलते हैं ।
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित कमला काढ का अंग ९४ समाप्तः ॥सा. २९२८॥
(क्रमशः)
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