रविवार, 3 नवंबर 2019

= १४६ =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*हम भूलैं, तूँ आन मिलावै,*
*हम बिछुरैं, तूँ अंग लगावै ॥*
*तुम्ह भावै सो हम पै नाँहीं हीं,*
*दादू दर्शन देहु गुसांईं ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश. २६५)*
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एक संत था, बहुत वृद्ध और बहुत प्रसिद्ध। दूर दूर से लोग जिज्ञासा लेकर आते, परन्तु वह सदा चुप ही रहता। हा, कभी कभी अपने डंडे से वह रेत पर जरूर कुछ लिख देता था। कोई बहुत पूछता, कोई बहुत ही जिज्ञासा उठाता, तो लिख देता.... *संतोषी सुखी; भागो मत, जागो; सोच मत, खो; मिट और पा, इस प्रकार के छोटे छोटे वचन।*
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जिज्ञासुओं को इससे तृप्ति न होती, और प्यास बढ जाती। वे शास्त्रीय निर्वचन चाहते थे। वे विस्तारपूर्ण उत्तर चाहते थे। और उनकी समझ में न आता था कि यह परम संत बुद्धत्व को उपलब्ध होकर भी उनके प्रश्नों का उत्तर सीधे सीधे क्यों नहीं देता। यह भी क्या बात है कि रेत पर डंडे से उलटबासिया लिखना? हम पूछते हैं, सीधा सीधा समझा दो। वे चाहते थे कि जैसे और महात्मा जप तप, यज्ञ याश, मंत्र तंत्र,विधि विधान देते थे, वह भी दे। परन्तु वह मुस्काता, चुप रहता, ज्यादा से ज्यादा फिर कोई उसे खोदता, कुरेदता तो वह फिर लिख देता, संतोषी सदा सुखी, भागो मत, जागो, बस उसके बंधे बंधाये शब्द थे।
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बड़े बड़े पंडित आए और थक गये और हार गये और उदास होकर चले गये, कोई उसे बोलने को मना न सका। कोई उसे ज्यादा विस्तार में जाने को भी मना न सका। परन्तु एक बात थी कि उसके पास कुछ था, ऐसी प्रतीति सभी को होती। उसके पास एक दैदीप्य प्रतिभा थी। उसके चारों तरफ एक प्रकाश था, एक अपूर्व शांति थी। उसके पास एक ठंडी, शीतल लहर थी, जो छूती। पाखंडियों तक को अनुभव होता, क्योंकि पाखंडी तो सबसे अंधे लोग हैं इस पृथ्वी पर। उनको भी लगता कि कुछ है, कोई चुंबक। दूर दूर काशी से आते, पर फिर उदास लौटते, क्योंकि वह ज्यादा कुछ बोलता न।
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परन्तु एक दिन ऐसा हुआ, एक युवक आया और बजाय इसके कि वह कुछ पूछे, उसने संत के हाथ से डंडा छीन लिया। उसकी आंखों में कुतूहल भी नहीं था, उसके चेहरे पर जिज्ञासा भी नहीं थी, उसके सिर पर पांडित्य का बोझ भी नहीं था, वह बड़ा भोला भाला युवक था, बड़ा शात। एक गहरी मुमुक्षा थी। जीवन को अर्पण करने की आकांक्षा थी। खोजी था।
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उसने डंडा हाथ में ले लिया और उसने भी मौन का व्रत लिया था, वह मौन ही रहता था, उसने डंडे से रेत पर लिखा, *आपकी ज्योति मेरे अंधेरे को कैसे दूर करेगी?* उसने रेत पर लिखा।
संत ने उत्तर में रेत पर लिखा, *कैसा अंधेरा, अंधेरा है कहां? क्या तुम अंधेरे में खोए हो?*
यह पहला छन था कि संत ने इतनी बात लिखी। भीड़ इकट्ठी हो गयी सम्पूर्ण गांव भर में समाचार पहुंच गया कि कोई मनुष्य आया है जिसने सोए संत को जगा लिया। उसने कुछ लिखा है जैसा कभी नहीं लिखा था। उसने लिखा है, कैसा अंधेरा? अंधेरा है कहां? क्या तुम अंधेरे में खोए हो?
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वह युवक थोड़ा ठिठका और उसने फिर लिखा, *क्या खो जाना वस्तुत: खो जाना है? क्या खो जाना मार्ग से वस्तुत: विस्मृत हो जाना है?*
संत ने युवक की आंखों में झांका, अनंत प्रेम और करुणा और आशीष से और फिर रेत पर लिखा, *नहीं खो जाना भी खो जाना नहीं, बस विस्मृतिमात्र। याद भर खो गयी है और कुछ खो नहीं गया है। खो जाना भी खो जाना नहीं है, बस विस्मृति।*
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अब तक तो दर्शकों की बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गयी थी। यह उत्तर पढ़ कर भीड़ में हंसी का फव्वारा फूट पड़ा। और संत ने जो लिखा था उसे तत्क्षण पोंछ डाला और पुन: लिखा, *कौन सी इच्छा तुम्हें यहां ले आयी है, युवक?* डंडा सतत हाथ बदलता रहा।
युवक ने लिखा, *इच्छा? इच्छाएं? नहीं मेरी कोई इच्छा शेष नहीं है।* ऐसा सुनते ही संत उठकर खड़ा हो गया, दायां पैर उठाकर भूमि पर तीन बार थाप दी, फिर आंखें बंद करके सांस को रोककर मूर्तिवत खड़ा हो गया। सन्नाटा छा गया। 
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भीड़ भी चकित हो गयी, युवक भी कुछ समझा नहीं, इस पर युवक भूल गया कि उसने मौन का व्रत लिया है और बोल उठा. *यह आपने क्या किया और क्यों किया?*
संत हंसा और उसने पुन: रेत पर लिखा, *कुतूहल इच्छा का ही एक रूप है।*
इस पर युवक चीख उठा *मैंने सुना है कि एक ऐसा महामंत्र है जिसके उच्चार मात्र से व्यक्ति विश्व के साथ एक हो जाता है, ब्रह्म के साथ एक हो जाता है, मैं उसी मंत्र की खोज में आया हूं। ज्यादा मुझे कहना नहीं। और मुझे पता है कि वह मंत्र आपके पास है, मैं देख रहा हूं, उसकी ध्वनि मुझे सुनायी पड़ रही है।*
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संत ने शीघ्रता से लिखा *तत्वमसि। वह तू ही है। वह मंत्र तू ही है। और क्या तू एक क्षण को भी ब्रह्म से भिन्न हुआ है?* और तब उस के संत ने अचानक डंडा उठाया और उस युवक के सिर पर दे मारा। युवक की आंखों के सामने तारे घूम गये। लेकिन वह किसी अनिर्वचनीय समाधि में भी डूब गया। उसकी आंखों से अविरल आनंद के आंसू बहने लगे। पल पर पल बीते, घडियां बीती, दिन बीता, दिन बीते, वह युवक अपूर्व आनंद में डूबा रहा तो डूबा ही रहा।
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और तब तीसरे दिन के संत ने न मालूम किस अनिर्वचनीय क्षण में भूल गया कि मौन का व्रत लिया है, मौन टूट गया के संत का और उसने कहा. *सो अंततः तुम घर वापिस आ ही गये, सो अंततः तुम घर वापिस आ ही गये?* पर युवक बोला नहीं और बिना बोले ही अनंत कृतज्ञता से संत की आंखों में देखता रहा और तब उसने डंडा उठाकर रेत पर लिखा, *केवल स्मृति लौट आयी, कौन गया था, कौन लौटा? केवल स्मृति लौट आयी।*

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