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🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*निश्चल ते चालै नहीं, प्राणी ते परिमाण ।*
*साथी साथैं ते रहैं, जाणैं जाण सुजाण ॥*
*ते निर्गुण आगुण धरी, मांहैं कौतुकहार ।*
*देह अछत अलगो रहै, दादू सेव अपार ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश. २४८)*
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*उपाधिरहित शिवरूप मुझको कहां उपदेश है, अथवा कहां शास्त्र है, और कहां शिष्य है और कहां गुरु है और कहां पुरुषार्थ है?*
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इस श्लोक में जनक ने वो कह दिया, जो अंतिम शब्द होते, इस के पश्च्यात कुछ भी कहने को शेष नहीं रहता। मैं निरुपाधि में ठहर गया। न ऐसा हूं न वैसा हूं। मैं नेति नेति में पहुँच गया। न साधु, न असाधु, न पापी, न पुण्यात्मा, न बुरा, न भला; न आत्मा, न ब्रह्म, मैं ऐसी उपाधिरहित दशा में आ गया हूं। अब यहां मेरे ऊपर कोई भी वक्तव्य लागू नहीं होता।
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*उपाधिरहित शिवरूप मुझको कहा उपदेश?*
जनक जी कह रहे हैं कि, अब किससे तो मैं उपदेश लूं और किसको मैं उपदेश दूं? उपदेश में तो स्वीकार कर ली गयी बात कि, दो होने चाहिए। गुरु शिष्य तभी तो बन सकते हैं न, जब दो हों। कोई कहे, कोई सुने, कोई दे, कोई ले। जनक कहते हैं, अब कैसा उपदेश? न तो मैं ले सकता उपदेश, क्योंकि दूसरा कोई है नहीं जिससे ले लूं और न मैं दे सकता, क्योंकि दूसरा कोई है नहीं जिसको मैं दे दूं। यह परम घड़ी आ रही, यह परम सौभाग्य का क्षण है जब कोई व्यक्ति ऐसी दशा में आता है जहां उपदेश देना लेना भी संभव नहीं। जनक जी कह रहे हैं कि जब उपदेश ही न हो तो शास्त्र नहीं बनता। शास्त्र तो उपदेश का ही संग्रहित रूप है। फिर कोई वेद, पुराण, रामायण, गीता कुछ अर्थ नहीं रखते।
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*फिर कहां शिष्य, कहां गुरु?*
जब उपदेश ही नहीं हो सकता तो कौन होगा गुरु और कौन होगा शिष्य? और कहाँ पुरुषार्थ है। फिर न कुछ पाने को बचा तो पुरुषार्थ का भी कोई प्रश्न नहीं है। जनक बोल तो रहे हैं। यह वचन तो बोल ही रहे हैं। अष्टावक्र ने इतना लंबा उपदेश भी दिया है और जनक भी कुछ कंजूसी नहीं कर रहे हैं बोलने में। फिर भी वह कहते हैं, कहां उपदेश? तो बात कुछ समझ लेनी चाहिए।
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*बुद्धपुरुष बोलते हैं, ऐसा कहना ठीक नहीं, बुद्धपुरुषों से बोला जाता है, ऐसा कहना ठीक है।*
*फूल खिलते हैं जैसे, सुगंध झरती है जैसे, बादल उमड़ घुमड़ कर आते हैं जैसे, और वर्षा होती है जैसे, दीया जलता है तो प्रकाश झरता है जैसे, ऐसे बुद्धत्व से रोशनी झरती है, सुगंध झरती है।*
परन्तु उपदेश देने की आकांक्षा नहीं है। जनक कह रहे हैं, कहा उपदेश, कहां शास्त्र? कहां शिष्य, कहां गुरु? कैसा पुरुषार्थ ?

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