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*द्वितीय भाग : शब्द*, *राग कान्हड़ा ४ (गायन समय रात्रि १२ से ३)*
साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, राज. ॥
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११२ - गुरु मुख कसौटी । ललित ताल ।
भाई रे, भान घड़ै गुरु मेरा, मैं सेवग उस केरा ॥टेक॥
कंचन कर ले काया, घड़ घड़ घाट निपाया ॥१॥
मुख दर्पण माँहिं दिखावै, पीव प्रकट आन मिलावै ॥२॥
सतगुरु साचा धोवै, तो बहुरि न मैला होवै ॥३॥
तन मन फेरि संवारै, दादू कर गह तारै ॥४॥
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गुरु - मुख से निकले शब्द रूप कसौटी और उसका लाभ बता रहे हैं, अरे भाई ! मेरे सद्गुरु काम - क्रोधादि आसुर गुणों को नष्ट करके, वैराग्यादि दैवी गुणों से युक्त करके मेरा अन्त:करण बनाते हैं, अत: मैं उनका सेवक हूं ।
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वे शरीर को सुवर्ण के समान निर्दोष करके अति उत्तम बना देते हैं । उन्होंने हमारे तन मनादि को उत्तम बना २ कर प्रभु के साक्षात्कार करने योग्य अन्त:करण तैयार किया है ।
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वे ज्ञान दर्पण द्वारा अपना आत्म - स्वरूप मुख दिखाते हैं और अभेदावस्था में लाकर प्रत्यक्ष में परब्रह्म को मिला देते हैं ।
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सच्चा सद्गुरु यदि साधक के अन्त:करण को ज्ञान - जल द्वारा धो डाले, तो वह पुन: कभी भी अज्ञान - मैल से मैला नहीं हो सकता ।
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सच्चे सद्गुरु विषयों से तन - मन को हटा, परमात्मा की ओर फेर कर सुधारते हैं और साधक का वृत्ति रूप हाथ पकड़ कर अर्थात् वृत्ति को ब्रह्माकार करके सँसार से पार कर देते हैं ।
(क्रमशः)

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