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*झूठा गर्व गुमान तज, तज आपा अभिमान ।*
*दादू दीन गरीब ह्वै, पाया पद निर्वाण ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ जीवित मृतक का अंग)*
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साभार ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु* *भाग ३* *नम्रता*
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नारनौल निवासी लूणीवाले सेठ भुवानीशाह के पुत्र द्वारिकाप्रसादजी आनन्दकुटीर आश्रम पुष्कर में अपने हाथों संत सेवा करते थे ।
एक दिन की बात है - आश्रम में भोजन बनाने पुष्कर से एक बाई आती थी । उसके मासिक धर्म के दिन आ गये, सूचना देर से मिली । सेठजी नित्य-नियम में बैठे थे ।
आज आश्रम में संतों को छोड़ अन्य कोई व्यक्ति नहीं था । इससे अन्य रसोइया की व्यवस्था शीध्र नहीं हो सकती थी । सेठजी ने स्वयं रसोई बनाई और सन्तों को जिमाया। सेठजी रसोई में थे ।
मैनें यह सोचकर कि आज सेठजी के पास काम बहुत है । संतों के बर्तन साफ कर कमरे में रखकर अपनी कुटिया पर आ गया ।
जब सेठजी को ज्ञात हुआ, तब मुझ से कहा - आपने यह क्या किया ? मुझे तो आज ही स्वतन्त्रता के साथ संत सेवा मिली थी । मैं आपसे से प्रार्थना करता हूँ कि आगे से आप मेरे रहते हुये ऐसा न करे । उनके हृदय में अभिमान कभी भी नही देखा गया । सदा नम्रता ही दृष्टि में आती थी ।
सज्जन श्रीमानों हृदय, रहता नही अभिमान।
करत द्वारिकाप्रसाद नित, संत सेवा युत मान ॥१५५॥
#### श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु ####
### श्री नारायणदासजी पुष्कर, अजमेर ###
### सत्यराम सा ###

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