गुरुवार, 28 नवंबर 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*समर्थ सो सेरी समझाइनैं, कर अणकर्ता होइ ।*
*घट घट व्यापक पूर सब, रहै निरंतर सोइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ समर्थता का अंग)*
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जैसे हम भोजन कर रहे हैं। भोजन करते हुए भी जाना जा सकता है कि हम भोजन नहीं कर रहे हैं। यदि साक्षी हों, तो हम देखेंगे कि शरीर को ही भूख लगी है, शरीर ही भोजन कर रहा है, मैं देख रहा हूं। कठिन नहीं है। थोड़े से जागकर देखने की बात है। घर के लोग थोड़े हैरान हुए। वे राम की भाषा से परिचित न थे। राम को मिल गए ! ऐसा खुद राम कह रहे हैं?
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*जब हम भोजन कर रहे हैं, तो राम भोजन कर रहे हैं; हम जरा खड़े होकर देखें। हम जरा पीछे खड़े हो जाएं और देखें कि राम भोजन कर रहे हैं। राम को भूख लगी, राम को नींद लगी, हम खड़े पीछे देख रहे हैं। यह पीछे खड़े होकर देखने की कला ही कर्म को अकर्म बना देती है। तब व्यक्ति करते हुए न करने जैसा हो जाता है।*
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और इससे भी जटिल बात दूसरी श्री कृष्ण कहते हैं कि तब न करते हुए भी कर्ता जैसा हो जाता है। वह और भी कठिन है बात समझनी। यह तो पहली बात समझ में आ सकती है कि यदि साक्षी-भाव हो, तो कर्म होते हुए भी ऐसा नहीं लगता कि मैं कर रहा हूं; देख रहा हूं कि हो रहा है। दूसरी बात और भी गहरी है कि न करते हुए भी कर रहा हूं। इसका क्या अर्थ हुआ?
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*वास्तव में जब कोई व्यक्ति पहली घटना को उपलब्ध हो जाता है कि करते हुए न करने को अनुभव करने लगता है, तब अनिवार्य रूप से दूसरी गहराई भी उपलब्ध हो जाती है कि वह न करते हुए भी अनुभव करता है कि कर रहा हूं। क्यों? क्योंकि जो व्यक्ति ऐसा जान लेता है कि मैं साक्षी हूं, वह व्यक्ति अपने को स्वयं से तो तोड़ लेता है और सर्व से जोड़ देता है। जो व्यक्ति ऐसा जान लेता है कि मैं नहीं कर रहा हूं, सब हो रहा है, मैं देख रहा हूं, उसका परमात्मा और उसके बीच तादात्म्य हो जाता है।*
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*फिर वह कुछ भी नहीं करता। हवाएं चल रही हैं, तो भी वह जानता है, मैं ही चला रहा हूं। चन्द्रमा, तारे घूम रहे हैं, तो वह जानता है, मैं ही चला रहा हूं।*
*वह जो भीतर है, यदि जान ले कि मैं साक्षी हूं, तो परमात्मा के साथ एक हो जाता है। फिर जो भी हो रहा है, वही कर रहा है। फिर वह यदि खाली भी बैठा हुआ है, तो भी वही कर रहा है। हवाएं भी वही चला रहा है, वृक्ष भी वही उगा रहा है, फूल भी वही खिला रहा है। वह जो बैठा हुआ है वृक्ष के नीचे आंखें मूंदे हुए, वही चन्द्रमा, तारे और सूरज भी चला रहा है।* परन्तु वह दूसरी घटना है। पहले तो कर्म में अकर्म का अनुभव हो, तो फिर अकर्म में कर्म का अनुभव होता है।
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*और जो इस गहन प्रतीति को उपलब्ध हो जाता है, श्री कृष्ण कहते हैं, वह ज्ञान को, सत्य को, सत्य के अनुभव को उपलब्ध हो जाता है।* और साथ ही आपसे यह भी कह दूं कि जो व्यक्ति साक्षी बन जाता है, उसे निषिद्ध कर्म क्या है, यह पहले से तय नहीं करना पड़ता। जब भी आवश्यकता होती है, जैसे ही वह साक्षी होता है, दिखाई पड़ जाता है कि यह निषिद्ध है और यह निषिद्ध नहीं है। इसे सोचना नहीं पड़ता। उसकी अवस्था ठीक ऐसे हो जाती है।
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जैसे एक अंधेरा कमरा है, उसमे एक अंधा व्यक्ति है; उसे कमरे के बाहर जाना है, तो वह पूछता है, द्वार कहां है? स्वभावतः, अंधे व्यक्ति को दरवाजे का पता नहीं है। वह पूछता है, द्वार कहां है? यदि कोई बता दे, तो भी कुछ भेद नहीं पड़ता। अनुमान हो जाता है; फिर भी लकड़ी से टटोलता है कि द्वार कहां है? बता दिया, तो भी टटोलता है, तो भी सीधे दरवाजे पर थोड़े ही पहुंच जाता है। कौन टटोलने वाला सीधा पहुंच सकता है? कभी खिड़की को छूता है, कभी कुर्सी को छूता है। फिर टटोल-टटोलकर कहां द्वार है, पता लगाता है।
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परन्तु आंख वाला व्यक्ति? आंख वाला आदमी पूछता नहीं, दरवाजा कहां है? निकलना है; उठता है और निकल जाता है। यदि हमने कभी विचार किया हो, जब हम दरवाजे से निकलते हैं, पहले सोचते हैं, दरवाजा कहां है, फिर देखते हैं कि यह रहा दरवाजा। फिर सोचते हैं, इसी से निकल जाएं। फिर निकल जाते हैं। ऐसी कोई प्रक्रिया होती है? नहीं; हमे पता ही नहीं चलता कि द्वार कहां है और हम निकल जाते हैं। दिखता है, तो दरवाजे से निकल जाते हैं।
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*ठीक ऐसे ही जिस व्यक्ति की साक्षी-भावना गहरी हो जाती है, उसे दिखाई पड़ता है, निषिद्ध कर्म क्या है। दिखाई पड़ता है। टटोलना नहीं पड़ता, पूछना नहीं पड़ता, सोचना नहीं पड़ता, शास्त्र नहीं खोलने पड़ते। बस, दिखाई पड़ता है कि निषिद्ध कर्म क्या है। और जो निषिद्ध है, वह फिर नहीं किया जा सकता। और जो निषिद्ध नहीं है, वही किया जा सकता है। बस, वह निकल जाता है। आप उससे पूछेंगे, तो उसको पीछे पता चलेगा कि मैंने वह कर्म नहीं किया। उसे पता नहीं चलता कि मैंने नहीं किया, क्योंकि इतना पता चलना भी केवल अंधों के लिए है। साक्षी-भाव आंख बन जाता है।*

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