गुरुवार, 28 नवंबर 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू जब लग जीविये, सुमिरण संगति साध ।*
*दादू साधू राम बिन, दूजा सब अपराध ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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सौ में से नब्बे प्रतिशत प्रश्न केवल कुतूहल होते हैं। जैसे छोटे बच्चे कुछ भी प्रश्न कुतूहल में पूछे हैं, कुतूहल से जो प्रश्न पूछे गए होते हैं, वे किसी भी उत्तर की चिंता नहीं करते। मिले तो ठीक, न मिले तो ठीक। क्योंकि तब तक कुतूहल आगे बढ़ गया होता है।
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*इसलिए श्रीकृष्ण पहले ही कहते हैं, दंडवत करके; कुतूहल से नहीं। क्योंकि जो कुतूहल से पूछेगा, उसे कभी गहरे उत्तर नहीं मिल सकते हैं। आपकी आंखों में दिखा कुतूहल, और उत्तर देने वाला बचाव कर जाएगा। क्योंकि जो जानता है, वह हीरे उन्हीं के सामने रख सकता है, जो हीरों को पहचान सकते हों। हर किसी के सामने हीरे रख देना नासमझी है। अर्थ भी नहीं है, प्रयोजन भी नहीं है। तो जो जानता है, वह कुतूहल का उत्तर नहीं दे सकता है।*
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दूसरी बात, कुतूहल न हो, जिज्ञासा हो,। कुतूहल नहीं है; सच में ही जानना चाहता है एक व्यक्ति। ऐसा नहीं कि ऐसे ही पूछ लिया, ऐसा नहीं, चलते थे रास्ते से, पूछ लिया, ऐसा नहीं। सच में ही जानना चाहता है; जानने को बड़ा आतुर है। परन्तु आतुर तो जानने को है, बहुत आतुर है, परन्तु जिससे जानना चाहता है, उसे इतना भी आदर नहीं देना चाहता कि मैं तुमसे जानना चाहता हूं; तो जानने की आतुरता भी सार्थक जिज्ञासा नहीं बन सकती है।
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वह ठीक ऐसा ही है कि एक व्यक्ति बहुत प्यासा है। हाथ चुल्लू बांधकर खड़ा है नदी के किनारे; परन्तु झुकना नहीं चाहता है कि झुके और पानी भर ले; तो नदी अपने नीचे बहती रहेगी। कोई नदी छलांग लगाकर और किन्हीं की चुल्लुओं में नहीं आती। चुल्लुओं को ही नदी तक झुकना पड़ता है। इसलिए श्री कृष्ण कहते हैं, दंडवत करके।
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ज्ञान की भी एक नदी है, धारा है। उसे कोई अहंकार में अकड़कर खड़ा होकर चाहे कि ज्ञान पा ले, कि किसी प्रश्न का सार्थक उत्तर पा ले, तो असंभव है। क्योंकि वह अहंकार ही बताता है कि जो झुकने को राजी नहीं, उसका चुल्लू भरा नहीं जा सकता। झुकने में राज क्या है? झुकने का इतना आग्रह क्या है?
दंडवत यहाँ प्रतीकात्मक है। दंडवत का अर्थ यह नहीं है कि सच में ही कोई व्यक्ति सिर जमीन पर रख दे, तो कुछ हल हो जाए। नहीं; भाव चाहिए दंडवत का। अहंकार झुका हुआ चाहिए; क्योंकि जहां अहंकार झुकता है, वहां हृदय का द्वार खुलता है। उस खुले द्वार में ही ग्राहकता पैदा होती है।
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जहां हृदय का द्वार बंद है, अहंकार अकड़कर खड़ा है, द्वार बंद है, वहां उत्तर प्रवेश भी नहीं कर सकता। इसलिए अहंकार से पूछी गई जिज्ञासा को ज्ञानीजन उत्तर नहीं देते हैं। वे कहते हैं, जाओ, अभी समय नहीं आया। *शिष्य होना होता हैं, शिष्य होने का अर्थ है, जो कि सीखने को, झुकने को, विनम्र होने को राजी है। क्योंकि विनम्रता में ही द्वार खुलता है। जब हम झुकते हैं, तभी द्वार खुलता है। अकड़कर खड़े हुए व्यक्ति के द्वार बंद होते हैं।*
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इसलिए श्री कृष्ण कहते हैं, दंडवत करके जो प्रश्न पूछता है !
दंडवत करके कौन प्रश्न पूछता है? और दंडवत करके कौन प्रश्न नहीं पूछता है? जो व्यक्ति दंडवत करके प्रश्न नहीं पूछता है, वह, वह व्यक्ति है, जो भीतर तो यह मानकर ही चलता है कि मुझे तो स्वयं ही पता है। ऐसे ही पूछे रहे हैं कि यदि इनको भी पता हो, तो गवाही मिल जाए कि जो हम जानते थे, वह ठीक है। दंडवत करके वही पूछता है, जिसे बोध है अपने अज्ञान का।
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इसलिए कृष्ण कहते हैं, दंडवत करके प्रश्न पूछना ऐसे पुरुष से।
परन्तु प्रश्न पूछने वाले आते हैं; तो चारों तरफ देखते हैं कि कहां बैठें? प्रश्न क्या पूछना है, सम्भवतय प्रश्न के बहाने कुछ बताने ही चले आए हों।
उस क्षण में ही प्रश्न पूछा जा सकता है। उस क्षण में प्रश्न न तो कुतूहल होता, न जिज्ञासा होता; बल्कि उस क्षण में प्रश्न मुमुक्षा बन जाता है। उस क्षण में प्रश्न प्यास हो जाता है। उस क्षण में प्रश्न ऐसा नहीं है कि चलते हुए पूछ लिया; प्रश्न ऐसा नहीं है कि जानना चाहते थे, इसलिए पूछ लिया। प्रश्न ऐसा है कि रूपांतरित होना चाहते हैं, इसलिए पूछा। बदलना चाहते हैं, क्रांति से गुजरना चाहते हैं, और हो जाना चाहते हैं।
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दंडवत का एक और अर्थ आपको स्पष्ट करना चाहूंगा। क्योंकि बड़ी भ्रांतियां हैं। पैर छूना उस क्षण दंडवत बन जाता है, जिस क्षण हमे पता ही नहीं चलता कि हम पैर छू रहे हैं। पता ही तब चलता है, जब पैर छूने की घटना घट गई होती है, जब कहीं सिर रख जाता है किसी चरण पर। तब ध्यान रहे, जब ऐसी मनोदशा में सिर रख जाता है किसी चरण पर, तो प्रार्थना घटित हो जाती है, ध्यान घटित हो जाता है। तो ऐसे क्षण में वह विनम्रता घटित हो जाती है, जो शिष्यत्व है।
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*जब क्रोध से पीड़ित, विक्षिप्त चित्त दूसरे के सिर पर पैर रखना चाहता है, तो मौन से, प्रेम से, प्रार्थना से, शांत हुआ चित्त, यदि दूसरे के पैरों में सिर रखना चाहे, तो आश्चर्य क्या है?
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*ध्यान रहे कि दंडवत प्रणाम हमारे भारत में एक बहुत वैज्ञानिक प्रक्रिया थी। प्रत्येक व्यक्ति का शरीर विद्युत-ऊर्जा से भरा है। और यह विद्युत-ऊर्जा कोणों से, से बहती है, हाथों की अंगुलियों से और पैर की अंगुलियों से। जब भी कोई व्यक्ति इस स्थिति में पहुंच जाता है, समर्पित परमात्मा पर, तो उसकी ऊर्जा परमात्मा से संबंधित हो जाती है। उसके पैरों पर यदि सिर रख दिया है, तो विद्युत-संचरण, तरंगों का प्रवाह भीतर तक दौड़ जाता है। उसके हाथों से भी यह होता है। इसलिए पैर पर सिर रखने का रिवाज था। और हाथ सिर पर रखकर आशीष देने का रिवाज था।*
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यदि किसी व्यक्ति के पैरों पर आपने सिर रखा और उसने भी आपके सिर पर हाथ रख दिया, तो आपके दोनों के शरीर विद्युत-धारा बन जाती हैं और विद्युत-धारा दोनों तरफ से दौड़ जाती है। इस विद्युत-धारा के दौड़ जाने के गहरे परिणाम हैं।
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परन्तु जीवन के बहुत-से सत्य समय की धूल से जमकर व्यर्थ हो जाते हैं। जीवन के बहुत-से सत्य व्यर्थ लोगों के हाथ में पड़कर घातक भी हो जाते हैं।
दंडवत करके पूछना, प्रश्न करना, जिज्ञासा, तो जिसने जाना है, उससे ज्ञान का अमृत तेरी तरफ बह सकता है अर्जुन, ऐसा श्री कृष्ण कहते हैं।

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