शुक्रवार, 1 नवंबर 2019

= १४१ =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*बैस गुफा में ज्योति विचारै,*
*तब तेहिं सूझै त्रिभुवन राइ ।*
*अंतर आप मिलै अविनाशी,*
*पद आनन्द काल नहिं खाइ ॥*
*जामण मरण जाइ, भव भाजै,*
*अवरण के घर वरण समाइ ।*
*दादू जाय मिलै जगजीवन,*
*तब यहु आवागमन विलाइ ॥*
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साभार ~ satsangosho.blogspot.com

*मेरे निरंजन स्वरूप में कहां पंचभूत हैं, कहां देह है, कहां इंद्रियां हैं, अथवा कहां मन है? कहां शून्य है, और कहां आकाश का अभाव है?*
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चकित भाव से जो कहा है अष्टावक्र ने उसकी चोट ऐसी प्रगाढ़ पडी है कि जैसे कोई नींद से जाग गया हो, या जैसे अंधेरे में अचानक बिजली कौंध गयी हो, या अंधे को अचानक आंख मिल गयी हो, या बहरे को कान मिल गये हों, या मुर्दा जी उठा हो, इतनी आकस्मिक घटना घटी है, चकित, विभोर। ये सारे वचन अत्यंत आश्चर्य से भरे हुए हैं।
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निरंजन शब्द बड़ा बहुमूल्य है। निरंजन का अर्थ होता है, जिस पर कोई अंजन न चढ़ सके, जिस पर कोई लेप न चढ़ सके। कमल का पत्ता, कहते हैं, निरंजन है। पानी में होता है, पानी की बूंद भी पड़ी होती है तो भी पानी कमल के पत्ते को छूता नहीं। पत्ते पर पड़ी बूंद भी अलग ही होती है। पत्ता अलग होता है। छूना नहीं होता, स्पर्श नहीं होता। कितने ही पास रहे, पत्ता निरंजन है। जनक ने कहा, आज देख रहा हूं कि मैं शरीर के पास तो हूं परन्तु शरीर कभी नहीं हुआ।
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मन के पास भी हूं इतने पास खड़ा हूं, सटा सटाया खडा हूं, परन्तु कभी मन नहीं हुआ। कर्म हुए, मैं पास ही खड़ा था और कभी कर्ता नहीं हुआ। भोग चले, मैं पास ही खड़ा था और कभी भोक्ता नहीं हुआ। भोग की छाया भी बनती रही, जैसे दर्पण पर छाया बनती है, हम दर्पण के सामने आए तो चेहरा बनता है। परन्तु दर्पण पर कोई लेप नहीं चढ़ता, हम चले गये, छाया भी गयी।
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यही तो भेद है दर्पण में और कैमरे की प्लेट में। कैमरे की प्लेट में भी चित्र बनता है लेकिन लेपन होता है। हम तो चले गये, परन्तु चित्र अटका रह गया। दर्पण पर लेपन नहीं होता, चित्र बनता है और बह जाता है। साक्षीभाव दर्पण की तरह है, कैमरे की प्लेट की तरह नहीं। अज्ञानी कैमरे की प्लेट की तरह है। जो देख लिया, उससे पकड़ जाता है। किसी ने बीस वर्ष पहले अपशब्द कहे थे, अब भी उसके मन में अपशब्द चल रहे है। अब भी उसे दोहरा रहे हैं।
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जनक ने कहा *मक्व रूपे निरंजने* मेरे इस निरंजन रूप को देखकर चकित अहोभाव से मैं खड़ा हूं। इतना किया और मुझसे कुछ भी नहीं हुआ। इतने दुख सुख झेले और मैं अछूता रहा हूं। धन रहा, गरीबी रही, बचपन था, जवानी थी, बुढ़ापा था, न पता कितनी देहों में गया, कभी पशु था, कभी पक्षी था, कभी मनुष्य हुआ; कभी पत्थर था, कितनी देहों से गुजरा, कितने रूप धरे, परन्तु फिर भी मैं निरंजन का निरंजन रहा।
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*मेरे निरंजन स्वरूप में कहां पंचभूत हैं।*
यह जो पांच भूतों का बड़ा विराट खेल चल रहा है, यह मुझसे बाहर है, यह भिन्न है। इसका मुझमें कहीं भी प्रवेश नहीं है। प्रवेश हो ही नहीं सकता, मेरा स्वरूप ऐसा है। यदि हम जल को जल में मिलाएँ तो मिल जाता है। परन्तु यदि हम जल को तेल में मिलाएं तो नहीं मिलता है। और यदि हमने तेल भरी कटोरी में जल डाल दिया तो पास पास हो जाएगा, जल और तेल बहुत पास पास हो जाएगा, दोनों की सीमाएं निकट से भी निकट एक होती हुई दिखाई पड़ेगी, फिर भी जल और तेल भिन्न भिन्न बने रहते हैं। ऐसा ही चैतन्य पदार्थ से भिन्न भिन्न बना रहता।
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*कितना ही मेल हो जाए, लेप नहीं होता।*
*कहां देह है, और कहां इंद्रियां हैं?*
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जनक कह रहे हैं, खड़ा हूं आंख के पीछे, परन्तु मैं आंख नहीं। देखने वाली आंख नहीं है, आंख तो केवल झरोखा है, वातायन है, जिस पर खड़े होकर कोई देख रहा है। सुननेवाला कान नहीं है, कान तो झरोखा है, जिसके पास खड़े होकर कोई सुन रहा है। जब मैं अपने हाथ से तुम्हें छूऊं, तो हाथ वास्तव में छूनेवाला नहीं है। नहीं तो मुर्दा हाथ भी छू सकता था। मुर्दा आंख भी हमारी तरफ देख सकती है, परन्तु फिर भी देख नहीं पाएगी, क्योंकि पीछे जो खड़ा था वह विदा हां गया है। वास्तविक ऊर्जा जा चुकी। वह जो वास्तविक ऊर्जा है, वह निरंजन है।
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और अब कहां इंद्रिया, कहां मन, कहां शून्य? और अपूर्व बात कहते हैं कि मन तो मैं हूं ही नहीं, समाधि में जो शून्य का अनुभव होता है, वह भी मैं नहीं हूं। क्योंकि कोई अनुभव मैं नहीं हूं। इसे थोड़ा समझना, थोड़ा बारीक है। जो भी हमे अनुभव में आ जाता है, उससे तुम अलग हो गये। इसे सूत्र समझे। इसे अंतर्जीवन का गणित समझे। जो हमारे अनुभव में आ गया, वह हम न रहे। जो हमने देख लिया, हम उससे भिन्न हो गये। जो दृश्य बन गया, वह द्रष्टा न रहा।
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तो हमने यदि देखा कि भीतर खूब प्रकाश हो रहा है, तो उस प्रकाश से तुम अलग हो गये, तुम देखनेवाले हो। तुमने भीतर देखा कि खूब अमृत की धार बह रही है, तुम इस अमृत से भी अलग हो गये। तुम देखनेवाले हो। तुमने भीतर देखा, सब शून्य हो गया—न कोई विचार, न कोई तरंग, न कोई भाव, अनंत शांति विराजमान हो गयी,तो तुम इस शांति से भी अलग हो गये। तुम तो इस शांति को जानने वाले हो। इसलिए न तो मैं मन हूं, न शून्य हूं; सभी चीजें जो जानी जाती हैं, उनसे मैं अलग हो गया।
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*’मैं आकाश भी नहीं हूँ और आकाश का अभाव भी नहीं हूं।’*

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