शुक्रवार, 1 नवंबर 2019

= *विवेक समता का अंग ८९(१३/१६)* =

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*समता के घर सहज में, दादू दुविध्या नांहि ।*
*सांई समर्थ सब किया, समझि देख मन मांहि ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*विवेक समता का अंग ८९* 
चंद सूर पाणी पवन, धरती अरु आकाश । 
देव दृष्टि दुविधा नहीं, सब आतम इखलास ॥१३॥ 
चन्द्रमा, सूर्य, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश, इन देवताओं की दृष्टि में दुविधा नहीं है, इनका सभी आत्माओं से प्रेम है । इनके समान ही सबसे समभावपूर्वक प्रेम होना चाहिये । 
जगन्नाथ की हाँडी समता, भोजन भेद सु नाँहिं । 
नींच ऊंच अंतर सु उठाया, दृष्टि आतम माँहिं ॥१४॥ 
पुरी में जगन्नाथ जी की हँडिया, में समता है, भोजन का भेद नहीं । वहाँ पर नीच-ऊंच का भेद उठा दिया गया है, केवल आत्मा पर ही दृष्टि रक्खी गई है । 
षट् दर्शन में खान का, पतरि१ भेद ना कोय । 
रज्जब जन्में तिनहुं में, सो न्यारा क्यों होय ॥१५॥ 
नाथ, जंगम, सेवड़े , बौद्ध, सन्यासी, शेष, इन छ: प्रकार के भेष धारियों में खाने के समय पत्तल१ भेद नहीं होता, विभिन्न जाति के एक पंक्ति में ही बैठते हैं, फिर उनमें जन्मता है अर्थात नया साधु बनता है वह अलग कैसे रहेगा ? नहीं रहता वैसे ही भक्त भी समता से हीन नहीं रहता वह ज्ञानी हो ही जाता है । 
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रज्जब अज्जब काम यहु, जे१ किसही कन२ होय । 
समता घर बैठे सुरति, कदे३ न देखे दोय४ ॥१६॥ 
किसी से२ भी हो यह समता का धारण करना अदभुत काम है । यदि१ समता रूप घर में वृति स्थित हो जाय, तो वह प्राणी कभी३ भी द्वैत४ नहीं देख सकेगा । 
(क्रमशः)

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