शुक्रवार, 1 नवंबर 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*कछू न कीजे कामना, सगुण निर्गुण होहि ।*
*पलट जीव तैं ब्रह्म गति, सब मिलि मानैं मोहि ॥*
*घट अजरावर ह्वै रहै, बन्धन नांही कोइ ।*
*मुक्ता चौरासी मिटै, दादू संशय सोइ ॥*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

जैसे हवा की तरंगे शांत झील में लहरें उठा जाती हैं, ऐसे ही चित्त की हवा मनुष्य की शांत आत्मा में हजार-२ लहरें उठा जाती हैं। वे लहरें मनुष्य की नहीं हैं। वे लहरें चित्त की हवा के कारण हैं। और कैसे-२ विचित्र स्वप्न पैदा हो जाते हैं, कैसे-२ लोभ; कैसे-२ मोह और लोभ, कैसे -२ जाल खड़े कर जाते हैं। और एक बार इस जाल में उलझने का अभ्यास मनुष्य कर लेता है तो छूटना कठिन हो जाता है। संसार में मनुष्य ने जन्मों-२ में ऐसे अभ्यास कर लिए हैं और गलत बातों को प्रगाढ़ता से सीख लिया है कि अब मनुष्य उन्हें कैसे भूले? ये ही समस्या है: ये खूब गहराई से सीख लिया है कि मैं शरीर हूं। भाषा, समाज, समूह; संस्कार सब इसी के लिए हैं।
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भूख लगती है, मनुष्य कहता है : मुझे भूख लगी है। यदि इसे ऐसा कहा जाए कि शरीर को भूख लगी है, ऐसा मैं देखता हूं - मनुष्य ध्यान दे कि गहरा अंतर पड़ जाता है। मुझे भूख लगी है, ये घोषणा है कि मैं शरीर हूं। जब मनुष्य कहता है कि शरीर को भूख लगी है, ऐसा मैं जानता हूं - तो मनुष्य ये कह रहा है कि शरीर अलग है, मैं ज्ञाता हूं, साक्षी हूं। जब कोई गाली देता है और मनुष्य के मन में तरंगे उठती हैं और वो कहता है कि मुझे क्रोध आ रहा है; तब मनुष्य गलत कह रहा है। मनुष्य इतना ही कहे कि मन क्रोध से भर गया है, ऐसा मैं जानता हूं। मनुष्य मन नहीं है, मन में जो क्रोध उठा है; उसे जानने वाला है।
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मनुष्य यदि शरीर होता तो उसे कभी ज्ञात नहीं होता कि भूख लगी है, क्योंकि तब मनुष्य ही भूख हो गया होता; ज्ञात किसे होता? पता चलने के लिए थोड़ा फासला चाहिए। शरीर को भूख लगती है, चेतना को ये ज्ञात होता है। मनुष्य चैतन्य-मात्र है। यदि हमारी भाषा वैज्ञानिक और धार्मिक हो, हमारे संस्कार चेतना की तरफ हों; शरीर की तरफ नहीं, तो समस्या बहुत कम हो जाए। जब ये चित्तरूपी वायु शांत हो जाती है, लहरें खो जाती हैं और चेतना की झील शांत हो जाती है; फिर ये जो जगत की नाव है, ये तत्क्षण खो जाती है। जैसे एक स्वप्न देखा हो ! जैसे कभी रही ही न हो ! जैसे भ्रम मात्र था।
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तब, करना इतना ही है कि ये जो चित्त की हवा है, ये बंद हो जाए। योग इस चित्त की हवा को शांत करने के लिए प्रक्रिया देता है - चित्तवृत्ति निरोधः ! चित्तवृत्ति का निरोध। कैसे करें? - यम, नियम, संयम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान आदि साधे मनुष्य; तब समाधि फलित होगी। तब चित्त की लहरें शांत हो जाएंगी। सांख्य की दृष्टि अनूठी है। सांख्य कहता है कि कुछ नहीं करना है, करने से चित्त में और -२ तरंगे उठेंगी; क्योंकि करना स्वयं ही उपद्रव है, करने से चित्त और डांवाडोल होगा। इसलिए करने का प्रश्न ही नहीं है। *मनुष्य साक्षी बने, कुछ करे नहीं।*
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*'आश्चर्य है कि अनंत समुद्ररूप मुझमें जीवरूपी तरंगे अपने स्वभाव के अनुसार उठती हैं, परस्पर लड़ती हैं; खेलती और लय होती हैं।'*
अपने स्वभाव के अनुसार ! ये कुंजी है ! ये सब हो रहा है - अपने स्वभाव के अनुसार ! मनुष्य न तो इसे शांत कर सकता है और न अशांत कर सकता है।मनुष्य बीच में पड़े ही न, होने दे जो हो रहा है। इतना ही स्मरण रखे कि मैं साक्षी हूं।

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