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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(श्री दादूवाणी ~ स्मरण का अंग . २)*
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*दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरुदेवत: ।*
*वन्दनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगत: ॥१॥*
*एकै अक्षर पीव का, सोई सत्य करि जाण ।*
*राम नाम सतगुरु कह्या, दादू सो परवाण ॥२॥*
“एक ही देव(ब्रह्म) है जो सब भूतों में गूढ(छिपा हुआ) है, सर्वव्यापक है, सभी भूतों का अन्तरात्मा है, कर्मों का जानने वाला साक्षी, चेतन, केवल, निर्गुण रूप है ।” “जैसे एक ही अग्नि सब भुवनों में प्रविष्ट होकर रूप रूप के प्रति नाना रूपों में प्रतीत हो रही है ।” इत्यादि श्रुतियों से सिद्ध सजातीय विजातीय स्वगत भेदशून्य एक अद्वितीय जो ब्रह्म है, वही मेरे सद्गुरु ने साधना हेतु ‘रामनाम’ शब्द से बतलाया है ।
उसी को वेदान्त में अक्षर ब्रह्म भी कहते हैं । जैसा कि “यस्मिन्निदं” इस श्रुति से प्रमाणित है । और वही ब्रह्म ‘सत्य’ ‘ज्ञान’ ‘अनन्त’ शब्दों से वर्णित किया गया है । उसी ब्रह्मतत्त्व को मेरे सद्गुरु ने उपासना के निमित्त उपदेश किया है ।
अतः मैं प्रमाणसिद्ध “रामनाम” साधना को करता हूँ । हे शिष्यो ! तुम भी ऐसा ही करो ॥२॥
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*पहली श्रवण द्वितीय रसना, तृतीय हिरदै गाइ ।*
*चतुर्दशी चेतन भया, तब रोम रोम ल्यौ लाइ ॥३॥*
पहले गुरुमुख से रामनाम का महत्त्व श्रवण करना चाहिये । तत्पश्चात् जिव्हा से नाम का जप करना चाहिये ।
यह जप दो प्रकार का होता है - पहला वाचिक तथा दूसरा मानसिक । वाचिक जप भी उच्च स्वर तथा उपांशु भेद से दो प्रकार का होता है । उच्च स्वर से जपने की अपेक्षा उपांशु जप हजार गुणा अधिक फलदायी होता है । तथा उपांशु जप से भी मानसिक जप और अधिक हजार गुणा फलप्रद होता है । जो शब्द सुनने वालों को सुनाई पड़ता है, जो स्वाध्यायस्वरूप है उसको ‘वाचिक जप’ कहते है । जिस जप में केवल ओठों का स्पन्दमात्र होता है, पास में बैठा हुआ दूसरा व्यक्ति भी शब्द को नहीं सुन सकता, वह ‘उपांशु जप’ कहलाता है । यह उपांशु जप वाचिक जप की अपेक्षा हजार गुणा अधिक फल देने वाला है । बारह हजार वर्षों तक जो नित्य ओंकार का ध्यान करता है उसे बारह मास में ही परब्रह्म का प्रकाश हो जाता है । मानस जप हृदय से होता है ।
श्रीदादू जी महाराज ने तृतीये हिरदै गाई - इस साखी वाक्य से मानस जप का महत्त्व बतलाया है ।
निरन्तर मानस जप से मन और इन्द्रियाँ भगवत्परायण हो जाती है । यह जप की चौथी अवस्था है । इस अवस्था में जीव ब्रह्मरूप हो जाता है । और रोम रोम से जप होने लगता है ॥३॥
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*मन प्रबोध*
*दादू नीका नांव है, तीन लोक तत सार ।*
*रात दिवस रटबो करो, रे मन इहै विचार ॥४॥*
तीनों लोकों में रामनाम ही सारवस्तु है । जैसे बीज में सूक्ष्मरूप से शाखा-पत्र आदि से युक्त वृक्ष स्थित है, ऐसे ही राम के रकार में सर्ववेद सुव्यवस्थित है । रकार से ही ब्रह्मा, विष्णु, शंकर तथा सब शक्तियाँ पैदा होती है । आदि अन्त्य एवं मध्य में वह सारा चराचर विश्व रकार में ही स्थित है । इसलिये रामनाम की साधना सब साधनाओं से उत्तम है । भागवत में लिखा है-
“मुमुक्षु पुरुषों के लिये रामनाम कीर्तन के अतिरिक्त कोई दूसरा साधन पाप काटने के लिये नहीं है; क्योंकि रामनाम कीर्तन के बाद रजोगुण तमोगुण जन्य कर्मों में मन की प्रवृत्ति ही नहीं होती । यह मार्ग कल्याण के लिये सुगम तथा भय रहित है, जिससे सुशील साधुजन नारायण का नाम जपते हुए कल्याण प्राप्त कर लेते हैं ।
हे राजन् ! पापी जन तप आदि साधनों से इतना जल्दी पवित्र नहीं होते, जितना कि भगवान् को अपने प्राण तक समर्पित करने वाला भक्त भगवान् की सेवा से होता है ।
एक बार भी जिसने ‘हरि’ - इन दो अक्षरों का उच्चारण कर लिया वह मोक्ष की ओर चल ही दिया समझो ।
जिन की भगवान् में अनन्य मति है ऐसे भक्त भोगी होते हुए भी, ज्ञान-वैराग्य न होने पर भी एवं ब्रह्मचर्यादि साधनहीन तथा सर्वधर्मरहित होने पर भी ‘नारायण’ नाम स्मरण करते हुए सुख से जिस गति को प्राप्त करते हैं वह गति धर्मात्मा को भी प्राप्त नहीं हो सकती ।”
इत्यादि वचनों से रामनाम साधना की श्रेष्ठता सिद्ध हो जाती है । ऐसा मन में विचार कर दिन-रात नाम साधना करते रहना चाहिये ॥४॥
(क्रमशः)

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