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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(श्री दादूवाणी ~ स्मरण का अंग. २)*
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*दादू राम नाम में पैस कर, राम नाम ल्यौ जाइ ।*
*यहु इंकत त्रिय लोक में, अनत काहे को जाइ ॥७६॥*
*मध्य मार्ग*
*ना घर भला न वन भला, जहाँ नहीं निज नाँव ।*
*दादू उनमनी मन रहै, भला तो सोई ठाँव ॥७७॥*
जैसे हठ योग में योगाभ्यास के लिये आसनादिक का विधान श्रुति में सुना जाता है; जैसे कि - समतल, पवित्र, वह्नि बालुका शब्द(कोलाहल) एवं जलाशय से रहित तथा मन के अनुकूल, जहाँ नेत्रों को पीड़ा न हो - ऐसे वायुरहित गुहा आदि प्रदेश में बैठकर ध्यान करे । जो न ऊंचा हो न नीचा । नीचे कुशा का आसन बिछावे । उस पर मृगचर्म और उस पर रेशमी वस्त्रदिक बिछाकर ध्यान करे ।
ऐसा राजयोग में आसन आदि में कोई विशेष विधान नहीं है । किन्तु स्वहृदयस्थित राम का, स्वहृदय को ही एकान्त स्थान मानकर भजन करना चाहिये । अन्यथा तुम त्रिलोकी में घूमकर देख लो तो तुम्हें अपने हृदय जैस एकान्त स्थान नहीं मिलेगा । किन्तु जहाँ अपना मन उन्मनीभाव को प्राप्त हो जाय वही ध्यान के लिये उत्तम स्थान है । फिर वह चाहे घर हो या वन । लिखा है-
“जैसे ज्ञान सत्पुरुषों के लिये मान, मद का नाशक होता है परन्तु वही अज्ञानियों के लिये मान, मद का हेतु बन जाता है । उदाहरणस्वरूप-जितेन्द्रियों के लिये जो एकान्त स्थान भक्ति का हेतु है वही कामियों के लिये भोग का स्थान बन जाता है । अतः घर में ही वन की तरह उदासीन रहकर स्वहृदय में विराजमान राम का ध्यान करना चाहिये ।
मन्त्रयोग, हठयोग, लययोग एवं राजयोग - ये चारों ही योग मुक्ति के प्रदाता हैं परन्तु इन में राजयोग उस मुक्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन है । इसीलिये यह सब योगों का राजा कहलाता है ।
महात्माओं के लिये ‘मैं ब्रह्म हूँ’- ऐसी बुद्धि ही मोक्ष का कारण है । जिसमें सम्पूर्ण दृश्य पदार्थ ब्रह्मरूप दीखते हैं । ‘मैं ब्रह्म हूँ’ में अक्षर ही परम विष्णु का बोध कराते हैं जो अव्यय है । जिससे “मैं ही सब कुछ हूँ” ऐसा भान होने लगता है । “मैं ब्रह्म हूँ” ऐसा ज्ञान जिसको हो गया है वह साधक की समग्र कामनाओं को नष्ट कर देता है । भले ही साधक लोकव्यवहार की पूर्णता के लिये कुछ भी व्यापार करता है । जिसके सहारे तेजपुंजस्वरूप, अव्यय परमात्मा का साक्षात्कार सरलतया कर ले, वही राजयोग है ।
इस राजयोग में वही आसन माना गया है जहाँ बैठकर सुखपूर्वक ब्रह्म का चिन्तन करा सके । जिस आसन से सुख का नाश हो वह आसन ‘आसन’ नहीं है । तथा जो विश्व का अधिष्ठान है, अव्यय तत्त्व तथा सिद्ध महात्मा जिस में समाविष्ट रहते हैं वह सिद्धासन कहलाता है ।
राजयोग में ज्ञानमयी दृष्टि ही उदार दृष्टि है, जिससे समग्र विश्व ब्रह्ममय प्रतीत हो, और नासिका के अग्रभाग की तरह जिस दृष्टि का विधान है वह राजयोग में मान्य नहीं ।
अपने आप को ब्रह्म में लीन करना ही ‘अंगों की समता’ मानी गयी है, न कि शुष्क वृक्ष की तरह सीधे बैठने का नाम समता है ।
आदि अन्त और मध्य में सम्पूर्ण विश्व जिसमें भासित नहीं होता, वही ब्रह्म एकान्त स्थान माना गया है ।
जो निमेष(आँख झपकना) मात्र में सर्वभूतों को उत्पन्न करता है वही इस राजयोग में काल शब्द से निर्दिष्ट है । जो कि अखण्डानन्द का बोधक है ।
वाणी भी जिसका बोध नहीं करा सकती, क्योंकि उस ब्रह्म का किसी भी शब्द से बोध नहीं कराया जा सकता, कारण कि वह तो शब्दातीत है ।
प्रपन्च भी शब्दातीत है इस प्रपन्च का जो अभिन्न निमित्तोपादान कारण ब्रह्म है उससे भिन्न कोई प्रपंच है ही नहीं ।
जो ब्रह्म सब का शासक है, उसमें व्याप्यव्यापकभाव भी नहीं बन सकता; क्योंकि वह अपरिछिन्न है । ऐसा ज्ञान जिस साधक को हो जाता है उस के लिये भेद का अवसर ही नहीं रह जाता ।
अतएव श्रुति में “जो कुछ भी नाम रूप है वह सब ब्रह्म ही है”- ऐसा कहा है ।
उपर्युक्त दोनों साखी वचनों में महाराजश्री ने राजयोग का ही संक्षिप्त वर्णन किया है ॥
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*निर्गुण नाम महिमा महात्तम*
*दादू निर्गुणं नामं मई, हृदय भाव प्रवर्त्तितम् ।*
*भ्रमं कर्मं किल्विषं, माया मोहं कंपितम् ॥७८॥*
*कालं जालं सोचितं, भयानक यम किंकरम् ।*
*हर्षं मुदितं सदगुरुं, दादू अविगत दर्शनम् ॥७९॥*
जब साधक हरि का नाम जपता है; तभी उसका हृदय हरिभाव से पूर्ण हो जाता है, भ्रम दूर हो जाता है, कर्म क्षीण हो जाते हैं, पाप स्वयं ही निकल जाता है, माया-मोह दोनों काँपने लगते हैं, काल का जाल नष्ट हो जाता है, यम के भयानक दूत भयव्याकुल होकर क्षण भर भी नहीं ठहरते । हर्ष के कारण हृत्कमल खिल उठता है, सद्गुरु भी प्रसन्न हो जाते हैं । अन्त में वह साधक ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है । लिखा है-
“भगवन्नामोच्चारण की इच्छामात्र से पाप कांपने लगता है, मोह भी सम्मोह को प्राप्त हो जाता है । चित्रगुप्त की कलम भी कांपने लगती है और ब्रह्मा भी आनन्दमग्न होकर उसकी अगवानी(सत्कार) करने की तैयारी में लग जाता है । हे ईश्वर ! इससे अधिक आपके नाम की महिमा क्या हो सकती है ! ॥७८-७९॥
(क्रमशः)

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