शनिवार, 2 नवंबर 2019

गुरुदेव का अंग १२९/१३२


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🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)
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*बेखर्च व्यवसनी* 
*दादू भक्त कहावैं आपको, भक्ति न जानैं भेव ।* 
*सुपनै ही समझैं नहीं, कहाँ बसै गुरुदेव ॥१२९॥* 
केवल बाह्य चिन्होसे, भक्ति के विना, भक्त नहीं कहला सकता । भक्ति के विना बाह्य चिन्ह तो आडम्बरमात्र हैं । गुरु के द्वारा कभी भक्ति के रहस्य को तो जाना नहीं, फिर भी गुरु बनकर दूसरों को उपदेश करता है । ऐसा गुरु त्याज्य है ॥१२९॥ 
*भ्रम विध्वंस* 
*भ्रम कर्म जग बंधिया, पंडित दिया भुलाइ ।* 
*दादू सतगुरु ना मिले, मारग देइ दिखाइ ॥१३०॥* 
दिन-रात अविद्या में रमने वाले, स्वयं को ही पण्डित मानने वाले, भेदवादी लोग वासनाओं से प्रेरित होकर स्वर्ग की इच्छा से वेद के वादों में भ्रमित होते हुए, भोग और ऐश्वर्य की प्राप्ति हेतु सकाम कर्म करते रहते हैं । यद्यपि उन सकाम कर्मों के फलस्वरूप उन्हें स्वर्गादि फल मिल जाते हैं; परन्तु व मोक्ष के लिये यत्न ही नहीं करते, ऐसे ही सर्वजगत् को कर्मजाल में फँसा कर भ्रमाते रहते हैं । अतः सद्गुरु से ही मोक्षप्राप्ति हो सकती है; क्योंकि वे ही यथार्थ मार्ग दिखाने वाले हैं, अज्ञानी नहीं ॥१३०॥ 
*दादू पंथ बतावैं पाप का, भ्रम कर्म विश्वास ।* 
*निकट निरंजन जे रहै, क्यों न बतावैं तास ॥१३१॥* 
अपने स्वार्थ में अन्धे बने कर्मकाण्डी पंडित मिथ्याभूत तथा नश्वर फल वाले एवं पशुवध प्रधान यज्ञयागादि कर्मों में जनता को प्रेरित करते हैं । वे मोक्षफल देने वाले नित्य आनंदस्वरूप ब्रह्मज्ञान में जनता को प्रेरित नहीं करते; अपितु ‘चातुर्मास्य यज्ञ करने वाले को अक्षय फल मिलता है पुण्य होता है”, “सोम का पान करने वाला अमर बन जाता है”- इत्यादि अर्थवादबोधक श्रुतियों का प्रमाण देते हुए स्वर्गादि फल देने वाले कर्मों में ही जनता की निष्ठा बढ़ाते हैं । और तो अतिसमिप ब्रह्म है उसमें निष्ठा का उपदेश नहीं करते । यह कैसी स्वार्थान्धता है ! ॥१३१॥ 
*विचार* 
*दादू आपा उरझे उरझिया, दीसे सब संसार ।* 
*आपा सुरझे सुरझिया, यह गुरु ज्ञान विचार ॥१३२॥* 
जो स्वयं कामक्रोधादि से बंधा हुआ है उसकी दृष्टि में सम्पूर्ण जगत् बंधा हुआ ही है । जो इन दोषों को जीत कर आत्मज्ञान में निष्ठ है, उसको यह जगत् ब्रह्ममय ही दीखता है; क्योंकि जिसकी जैसी दृष्टी होती है उसको वैसा ही दीखा करता है । यह स्वाभाविक है कि जैसी दृष्टि वैसी ही सृष्टि होगी । यही गुरु का ज्ञान और विचार है ॥१३२॥
(क्रमशः)

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