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*दुर्बल देही निर्मल वाणी, दादू पंथी ऐसा जाणी ।*
*काहू जीव विरोधे नांही, परमेश्वर देखे सब माँही ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*दया निर्वैरता का अंग ९१*
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दया तरुवर धर्म फल, मनसा१ मही२ सु माँहिं ।
महर मेध हरि नीपजे, रखवारे फल खाँहिं ॥९॥
बुद्धि१ रूप पृथ्वी२ में दया रूप वृक्ष उगता है, परमात्मा रूप मेध कृपा रूप जल की वृष्टि करता है, तब उसके धर्म रूप फल लगता है । उस फल को वे ही खाते हैं जो दया की रक्षा करते हैं अर्थात दया का फल दयालु को ही मिलता है ।
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राग द्वेष कासौं कर हिं, सब में साहिब जाण ।
रज्जब बुरा न वाछिंये, छाड़ देहु गत१ बाण२ ॥१०॥
राग-द्वेष किससे करता है ? सभी में प्रभु विराजमान हैं, ऐसा जान जानकर किसी के भी बुरा होने की इच्छा मत कर, बुरे१ स्वभाव२ को छोड़ दे ।
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विभूति१ बकरी तन लागे, थन२ सु गलथने चार ।
यूं साधू असाधु इक ठौर है, नर निर्वैर निहार ॥११॥
बकरी के दूध के स्तन और गले के स्तन२ ऐसे चार स्तर लगे हैं, वैसे ही माया१ में संत असंत दोनों एक ही स्थान में हैं । हे नर ! उन सभी को निर्वैर दृष्टि से ही देख ।
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रज्जब ह्वै निर्वैरता, तो वैरी कोउ नाँहि ।
मनसा वाचा कर्मना, यूं समझो मन माँहिं ॥१२॥
यदि हृदय में निर्वेरता उत्पन्न हो जाय तो कोई भी वैरी नहीं रहता, मन, वचन, कर्म से अपने मन में ऐसा ही सत्य समझो ।
(क्रमशः)

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