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🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू धरती ह्वै रहै, तज कूड़ कपट अहंकार ।*
*सांई कारण सिर सहै, ताको प्रत्यक्ष सिरजनहार ॥*
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साभार ~ satsangosho.blogspot.com
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जितेंद्रिय हुआ पुरुष--इंद्रियों को जिसने जीता, ऐसा पुरुष।
*साधारणतः हम सोचते हैं कि वह जितेंद्रिय होगा, जो इंद्रियों से लड़ेगा, उन्हें हराएगा। यहीं भूल हो जाती है। जो इंद्रियों से लड़ेगा, वह हारेगा; जितेंद्रिय कभी भी नहीं हो सकेगा। इंद्रियों को जीतने का सूत्र इंद्रियों से लड़ना नहीं, इंद्रियों को जो जानना है। इंद्रियां जीती जाती हैं इंद्रियों के साक्षात्कार से। जो पुरुष इंद्रियों से लड़ने में लग जाता, वह इंद्रियों से निरंतर हारता है। जो लड़ेगा, वह हारेगा। जो जानेगा, वह जीतेगा।*
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ज्ञान विजय है। इंद्रियों का ज्ञान विजय है।
लड़ने से ज्यादा से ज्यादा दमन हो सकता है। जिसे हम दबाते हैं, वह लौट-लौटकर उभरता है। जिसे हम दबाते हैं, उसे हम और शक्ति देते हैं। क्रोध को दबाया, तो और गहन हिंसा होकर प्रकट होगा। काम को दबाया, तो और विकृत, विषाक्त होकर प्रकट होगा। अहंकार को दबाया, तो एक कोने से दबाएंगे, दस कोनों से निकलना शुरू होगा।
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इंद्रियों को दबाया नहीं जा सकता। क्यों? क्योंकि दबाता वही है, जो इंद्रियों को जानता नहीं है। जो जानता है, वह दबाता ही नहीं है। क्योंकि जो जान लेता है, इंद्रियां उसके वश में हो जाती हैं।
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इसलिए जब श्री कृष्ण कहते हैं, जितेंद्रिय पुरुष, तो भूलकर यह मत समझ लेना, जैसा आमतौर से समझा जाता है कि वह पुरुष, जिसने अपनी इंद्रियों पर काबू पा लिया। नहीं, जितेंद्रिय पुरुष वह है, जिसने अपनी इंद्रियों के सब रहश्य जान लिए। जानते ही स्वामी हो गया है, जितेंद्रिय हो गया है।
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*इंद्रियां हार जाती हैं ज्ञान से; इंद्रियां प्रबल हो जाती हैं अज्ञान से। जो इंद्रियों से लड़ता है, वह इंद्रियों के ही चक्कर में पड़ता है। जितेंद्रिय होने का मार्ग, अंतःप्रकृति का ज्ञान है।*
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श्री कृष्ण जब कहते हैं जितेंद्रिय, तो उनकी बात को समझना अत्यंत ही कठिन हुआ है। हम तत्काल जितेंद्रिय का अर्थ लेते हैं, दमन। क्योंकि हम भोग में खड़े हैं। हमारा मन दूसरी अति में अर्थ ले लेता है। भोग से हम परेशान हैं। जैसे ही हम सुनते हैं, जीतो इंद्रिय को; हम कहते हैं, दबाओ इंद्रिय को। जीत बन जाती है दमन, हमारे मन में। और तभी भूल हो जाती है।
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*जितेंद्रिय का अर्थ है, जानो इंद्रिय को। एक-एक इंद्रिय के रस को पहचानने से, परिचित होने से; एक-एक इंद्रिय की शक्ति के भीतर प्रवेश करने से, जीत फलित होती है। ज्ञान विजय बन जाता है। ज्ञान ही विजय है। कैसे जानेंगे?*
इस जगत में जो भी ज्ञान को उपलब्ध होता है, वह ध्यान से उपलब्ध होता है, कोई भी ज्ञान, चाहे विज्ञान की प्रयोगशाला में उपलब्ध होता हो; और चाहे योग की अंतःप्रयोगशाला में उपलब्ध होता हो। जो भी ज्ञान जगत में उपलब्ध होता है, वह ध्यान से उपलब्ध होता है। ध्यान ज्ञान को पाने का उपाय, विधि है।
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*और ध्यान क्या है ? ध्यान का अर्थ है, जो भी शरीर या मन के द्वारा क्रिया हो रही, उसको दूर हट के निरीक्षण करना, स्वम् को स्वम् से अलग हट के देखना ही ध्यान हैं। कोई भी इन्द्रियां कुछ भी कृत कर रही हो, जैसे आँखे देख रही, तो आखों को देखते हुए भी देखना ध्यान हैं।*
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जिस भी इंद्रिय के साथ हमारा एकात्म हो जाता है, उसे हम कभी न जान पाएंगे। जिस इंद्रिय के रस के साथ हम इतने डूब जाते हैं कि भूल जाते हैं कि मैं देखने वाला हूं, बस, फिर ध्यान नहीं हो पाता। फिर कभी इंद्रियों के रस का ज्ञान नहीं हो पाता।
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जैसे क्रोध उठे, तो क्रोध से जरा दूर खड़े होकर देखें, क्या है? परन्तु हम भगवान पर तो ध्यान करते हैं, जिसका हमें कोई पता नहीं। जिसका हमें पता नहीं, उस पर तो ध्यान होगा कैसे। ध्यान तो उस पर हो सकता है, जिसका हमें पता है। भगवान पर ध्यान करते हैं, जिसका हमें कोई पता नहीं है। क्रोध पर, काम पर कभी ध्यान नहीं करते, जिसका हमें पता है। सुख भी उत्तेजना, दुख भी उत्तेजना, इसलिए उत्तेजनाएं एक-दूसरे में बदल सकती हैं, बदल जाती हैं।
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*शांति, परम शांति वह है, जहां कोई उत्तेजना नहीं है, न सुख की, न दुख की। जहां सुख भी नहीं, जहां दुख भी नहीं, ऐसा जहां परम शांत हुआ चित्त, वहीं आनंद फलित होता है, वहीं प्रभु का द्वार खुलता है, वहीं परम सत्य में प्रवेश होता है। जितेंद्रिय हुआ, श्रद्धा से युक्त, शांत हुआ मन, परम सत्य, निगूढ़ सत्य में प्रविष्ट हो जाता है।*

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