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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(श्री दादूवाणी ~ स्मरण का अंग. २)*
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*स्मरण*
*दादू राम शब्द मुख ले रहै, पीछे लगा जाइ ।*
*मनसा वाचा कर्मना, तिहि तत सहज समाइ ॥५१॥*
*दादू रचि मचि लागे नाम सौं, राते माते होइ ।*
*देखेंगे दीदार को, सुख पावेंगे सोइ ॥५२॥*
जिस भक्त के मुख से राम नाम उच्चरित होता रहता है, जो मन वाणी एवं कर्म से रामनाम में ही समाहित रहता है, भजनकाल में कभी अनुरक्त, कभी उन्मत्त व विरक्त होते हुए रामनाम जपता रहता है, वह भक्त ही साक्षात्कार जन्य सुख प्राप्त कर सकता है; क्योंकि भजन करते करते वह अद्वय=आनन्दस्वरूप हो जाता है । योगवासिष्ठ में लिखा है-
“जैसे जल में शुद्ध जल मिला देने से वह शुद्ध ही रहता है, इसी प्रकार हे गौतम ! उस ब्रह्म को जानने वाला भी आत्मस्वरूप हो जाता है ।
भागवत में भी लिखा है-
जिसकी वाणी गद्गद हो जाती है, चित्त द्रवित हो जाता है, बार बार हँसता है, कभी निर्लज्ज की तरह गाता है, नाचता है । ऐसा मेरा भक्त त्रिलोकी को पावन कर देता है ॥५१-५२॥
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*चेतावनी*
*दादू सांई सेवैं सब भले, बुरा न कहिये कोइ ।*
*सारों मांही सो बुरा, जिस घटि नाम न होइ ॥५३॥*
इस साखीवचन से अब श्रीदादूजी महाराज भक्ति का माहात्म्य बता रहे हैं । नीच जाति में उत्पन्न हुआ यदि कोई हरि को भजता है तो वह सर्वश्रेष्ठ माना जाता है । शुद्ध जाति में उत्पन्न हो कर भी यदि कोई हरि को नहीं भजता तो वह अपवित्र तथा दर्शन के योग्य नहीं है । लिखा है-
“हे कपि हनुमान ! दुराचारी मानव भी मेरे भजन के प्रताप से सालोक्य मुक्ति को प्राप्त हो जाता है । वह किसी अन्य लोक में नहीं जाता ।” गीता में भी बताया है-
“कोई कितना ही दुराचारी क्यों न हो, यदि वह अनन्य मन से मुझको भजता है तो उसको ‘साधु’ ही मानना चाहिये । क्योंकि वह ठीक मार्ग पर है ।
“मेरा भक्त बहुत शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और शाश्वत शान्ति को प्राप्त कर लेता है । हे कौन्तेय ! तुम अच्छी तरह समझ लो कि मेरे भक्त का कभी कुछ भी बुरा नहीं हो पाता ।”
“हे पार्थ ! मेरा सहारा लेकर, फिर भले ही वे पापयोनियों में क्यों न पैदा हुए हों, स्त्री, शुद्र या वैश्य भी मेरे भजन के प्रभाव से परम गति प्राप्त कर लेते हैं ॥”
और भी कहा है-
‘आचारहीन, निन्दित एवं भक्तिहीन प्राणी भी यदि ‘नारायण’ ऐसा कह देता है तो वह इतना कह देने मात्र से ही पापरहित होकर अच्युत गति को प्राप्त कर लेता है ॥५३॥’
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*ईश्वर विमुख प्राणी की दुर्गति*
*दादू जियरा राम बिन, दुखिया इहि संसार ।*
*उपजै विनसै खप मरै, सुख दुख बारम्बार ॥५४॥*
जीवात्मा इस संसार में हरिनाम के विना सुखप्राप्ति का उपाय करता है, लेकिन उस को सुख मिलता नहीं; प्रत्युत दुःख ही मिल पाता है । अधिक क्या कहें, वह बार बार इस लोक में उत्पन्न होता, मरता तथा दुःख भोगता रहता है लेकिन रामनाम नहीं जपता । शंकराचार्य जी ने लिखा है-
इस दुस्तर संसार में जीव बार बार जन्मता मरता है, बार बार माता के उदर(गर्भ) में शयन करता है । अतः हे मुरारे ! इस संसार से कृपया आप ही मुझे पार कर दो ॥
नारद पुराण में भी कहा है-
“बड़ा ही आश्चर्य हो रहा है कि हरि नाम के रहते, संसारी मानव बार बार संसार में आता-जाता है ।”
भागवत के माहात्म्य में भी लिखा है-
वह पापी जीता हुआ भी मृत तुल्य ही है । जिसने भगवतकथा का श्रवण नहीं किया । देवता भी अपने दिव्य सभा में उसे धिक्कारते हुआ कहते हैं कि वह पशुतुल्य है और पृथ्वी का भार है ॥५४॥”
(क्रमशः)
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