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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(श्री दादूवाणी ~ स्मरण का अंग. २)*
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*राम नाम रुचि उपजै, लेवे हित चित लाइ ।*
*दादू सोई जीयरा, काहे जमपुरि जाइ ॥५५॥*
जिसकी रामनाम में श्रद्धा उत्पन्न हो गयी है वह यदि कभी प्रेम से हरिनाम का स्मरण करता है तो वह कभी भी यमलोक नहीं जाता । भागवत-महात्म्य में लिखा है-
हाथ में पाश लिये अपने दूतों के कान में यमराज कहते हैं- “हे दूतो ! जो भगवान् की कथा में पागल हो रहे हैं, उनको तुम छोड़ देना; क्योंकि मैं संसार में अन्य पुरुषों का ही स्वामी हूँ, वैष्णवों का नहीं । अर्थात् तुम वैष्णवों को छोड़कर अन्य को हो पकड़ना ॥५५॥”
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*दादू नीकी बरियां आय कर, राम जप लीन्हां ।*
*आत्म साधन सोधि कर, कारज भल कीन्हां ॥५६॥*
भगवान् ने इस जीव को यह मनुष्य जीवन भगवान् की भक्ति के लिये ही दिया है । अतः इस सुअवसर को पाकर जिसने भगवान् की आराधना कर ली, उसने अपने सब कार्य पूरे कर लिये । उपनिषद् में लिखा है-
“इसी जन्म में भगवान् को जान लिया तो अच्छा है, अन्यथा महान् अनर्थ हो जायगा । “सात्वत तन्त्र में भी लिखा है- “किसी भी भाव से हरि का निरंतर कीर्तन करे, मनुष्य पाप को त्याग कर सद्गति को प्राप्त हो जाता है । फिर जो श्रद्धा-भक्ति से गुणगान करता है उसके विषय में कहना ही क्या? अर्थात् वह अवश्य सद्गति को पायेगा । इसलिये हे विप्र ! श्रद्धा भक्ति के साथ भगवान् श्रीकृष्ण का कीर्तन करो । यही मनुष्यजन्म का महाफल है ।” विशेषकर महात्मा लोग “इस कलिकाल में तो भगवन्नामकीर्तन ही मुख्य है” -ऐसा कहते हैं ॥५६॥
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*दादू अगम वस्तु पानैं पड़ी, राखि मंझि छिपाइ ।*
*छिन छिन सोई संभालिए, मत वै बीसर जाइ ॥५७॥*
माया से मोहित, तथा संसार सागर में पड़े हुए साधक को यदि अगम ब्रह्म की प्राप्ति का साधन हरिचिन्तन प्राप्त हो जाय तो उस को गुप्त ही रखना चाहिये अर्थात् अनधिकारी को नहीं देना चाहिये । हो सकता है, वह अनधिकारी सांसारिक भोगों के लिये या अणिमादि सिद्धि के लिये उसका दुरूपयोग करे । अतः उस प्रभु का प्रतिक्षण चिन्तन करते रहो । उसे भूलो मत । भागवत में लिखा है-
“जगत् की आत्मा भगवान् को प्रसन्न करके, जो तपस्या से भी प्रसन्न होना कठिन है, मैंने जो प्रार्थना द्वारा उससे मांगा, वह व्यर्थ ही है; जैसे जिसकी आयु समाप्त हो जाय, उसकी चिकित्सा व्यर्थ है ।”
“जो भगवान् संसार को नष्ट कर सकते हैं तथा स्वराज्य को प्रदान कर सकते हैं, उन से मुझ मन्दभागी ने अपना मान चाहा । जैसे जिस का पुण्य क्षीण हो जाता है ऐसा, निर्धन व्यक्ति निष्फल तुषों की याचना करता है ॥५७॥”
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*स्मरण नाम महिमा माहात्म्य*
*दादू उज्जवल निर्मला, हरि रंग राता होइ ।*
*काहे दादू पचि मरै, पानी सेती धोइ ॥५८॥*
यह मन निर्मल हरिस्मरण से उज्जवल हो जाता है, न कि केवल तिर्थादिकों में स्नान करने मात्र से । अतः तीर्थों के परिभ्रमण के श्रम का त्यागकर हरिभजन ही करना चाहिये । लिखा है-
शीलरुपी जल से परिपूर्ण आत्म-नदी में स्नान करो, जिस(नदी) के सत्य ही आवर्त(भँवर) हैं, शील किनारे हैं, दया तरंग हैं । हे पाण्डुपुत्र ! केवल जल में स्नान करने मात्र से अन्तरात्मा पवित्र नहीं होता । जल में स्नान करने से बाहर की गन्दगी ही शुद्ध होती है । सत्य-आचरण से मन शुद्ध होता है । विद्या तप से भूतात्मा की शुद्धि होती है । ‘गोबिन्द’ इतने कहने भर से देह को क्लेश के बन्धन में बांधने वाले सारे पाप नष्ट हो जाते हैं । जैसे विना वेद पढ़े ब्राह्मण का दान देने से दान का फल नष्ट हो जाता है ॥५८॥
(क्रमशः)
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