सोमवार, 25 नवंबर 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*चलु दादू तहँ जाइये, जहँ चंद सूर नहिं जाइ ।*
*रात दिवस की गम नहीं, सहजैं रह्या समाइ ॥*
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साभार ~ श्रीयोगवाशिष्ठ उत्पत्तिप्रकरण
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*ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या।* जगत और ये देह क्या है? मात्र विचारों की सवेदना, जैसी संवेदन विचरती है, तैसा ही ये जगत सत्य प्रतीत होता है। जो देहधारी योग ध्यान के अभ्यास से विचारों का पृथक हो कर निरक्षण करता है वह मन के पार परम सत्य को उपलब्ध हो जाता है।*
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*और जैसे चेतता है तैसे ही सिद्ध होता है। जैसे किसी रोगी को एक रात्रि कल्प के समान व्यतीत होती है और जो आरोग्य होता है उसको रात्रि एक क्षण की तरह व्यतीत होती है।*
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*एक मुहूर्त के स्वप्न में अनेक वर्षों का अनुभव करता है, और जानता है कि मैं उपजा हूँ, ये मेरे माता-पिता हैं, अब मैं बड़ा हुआ और ये मेरे बान्धव हैं। एक मुहूर्त्त में इतने भ्रम देखता है, और जागने पर एक मुहूर्त्त भी नहीं बीतता।*
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हरिश्चन्द्र को एक रात्रि में बारह वर्षों का अनुभव हुआ था और राजा लवण को एक क्षण में सौ वर्षों का अनुभव हुआ था। इससे जैसे जैसे इच्छाओ की संवेदना विचरती है, तैसा ही जगत सत्य प्रतीत होता है।
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*ब्रह्मा के एक मुहूर्त्त में मनुष्य की आयु व्यतीत हो जाती है। ब्रह्मा जितने काल में एक मुहूर्त्त का अनुभव करता है, मनुष्य उतने ही में पूर्ण आयु का अनुभव करता है, और ब्रह्मा जितने काल में अपनी संपूर्ण आयु का अनुभव करता है सो विष्णु का एक दिन होता है। ब्रह्मा की आयु व्यथीत हो जाती है और विष्णु को एक दिन का अनुभव होता है। इससे जैसे जैसे संवेदन में दृढ़ता होती है, तैसा तैसा भाव होता है। जो कुछ जगत् हम देखते हैं, वो केवल विचारों की संवेदना मात्र है।*
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*जब स्वयं में ठहराव होता है, तब न दिन प्रतीत होता है, न रात्रि, न कोई पदार्थ प्रतीत होते हैं न अपना शरीर, केवल आत्म तत्त्व मात्र सत्ता रहती है। सब जगत् मन के विचारों का प्रतीक मात्र है। जैसा जैसा मन विचरता है तैसा तैसा जगत सत्य प्रतीत होता है। कड़वे में जिसको मीठे की भावना होती है तो कड़ुवा उसको मीठा हो जाता है, और मीठे में जिसको कड़वे की भावना होती है, तब मीठा भी उसको कटु रूप हो जाता है।*
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*जहाँ संवेदना होती है, जहाँ ये मन ठहरा है, उसको जानना ही धर्म है, और उसको जानना ही बंधन मुक्त अवस्था या मोक्ष है।

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