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🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*सब काहू के होत हैं, तन मन पसरैं जाइ ।*
*ऐसा कोई एक है, उलटा मांहिं समाइ ॥*
*क्यों करि उलटा आनिये, पसर गया मन फेरि ।*
*दादू डोरी सहज की, यों आनै घर घेरि ॥*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com
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जल में वायु नाव को जैसे कंपित कर देता है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इंद्रियों के बीच में जिस इंद्रिय के साथ मन रहता है, वह एक ही इंद्रिय इस अयुक्त पुरुष की प्रज्ञा का हरण कर लेती है। इससे हे महाबाहो, जिस पुरुष की इंद्रियां सब प्रकार इंद्रियों के विषयों से वश में की हुई होती हैं, उसकी प्रज्ञा स्थिर होती है।
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जैसे नाव चलती हो और हवा की आंधियों के झोंके उस नाव को डांवाडोल कर देते हैं; आंधियां तेज हों, तो नाव डूब भी जाती है; ऐसे ही श्री कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, जिसके चित्त की शक्ति विषयों की तरफ विक्षिप्त होकर भागती है, उसका मन आंधी बन जाता है, उसका मन तूफान बन जाता है। उस आंधी और तूफान में शांति की, समाधि की, स्वयं की नाव डूब जाती है। परन्तु यदि आंधियां न चलें, तो नाव डगमगाती भी नहीं। यदि आंधियां बिलकुल न चलें, तो नाव के डूबने का उपाय ही नहीं रह जाता।
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ठीक ऐसे ही मनुष्य का चित्त जितने ही झंझावात से भर जाता है वासनाओं के, जितने ही जोर से चित्त की ऊर्जा और शक्ति विषयों की तरफ दौड़ने लगती है, वैसे ही जीवन की नाव डगमगाने लगती है और डूबने लगती है।
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ज्ञानी पुरुष इस सत्य को देखकर, इस सत्य को पहचानकर यह चित्त की वासना की आंधियों को नहीं दौड़ाता। क्या अर्थ है? रोक लेता है? परन्तु आंधियां यदि रोकी जाएंगी, तो भी आंधियां ही रहेंगी। और दौड़ रही आंधियां संभवतय कम संघातक हों, रोकी गई आंधियां संभवतय और भी संघातक हो जाएं। तो क्या ज्ञानी पुरुष आंधियों को रोक लेता है, यदि रोकेगा, तो भी आंधियां आंधियां ही रहेंगी और रुकी आंधियों का वेग और भी बढ़ जाएगा। तो क्या करता है ज्ञानी पुरुष?
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यह समझने योग्य विषय हैं, कृपया ध्यान दे। आंधियां रोकनी नहीं पड़तीं, केवल चलानी पड़ती हैं। हम न चलाएं, तो रुक जाती हैं। क्योंकि आंधियां कहीं बाहर से नहीं आ रही हैं, हमारे ही सहयोगnसे आ रही हैं।
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मैं एक हाथ को हिला रहा हूं। इस हाथ को हिलने से मुझे रोकना नहीं पड़ता। जब रोकता हूं, तो उसका कुल अर्थ इतना होता है कि अब नहीं हिलाता हूं। कोई हाथ यदि बाहर से हिलाया जा रहा हो, तो मुझे रोकना पड़े। मैं ही हिला रहा हूं, तो रोकने का क्या अर्थ होता है, शब्द में रोकना क्रिया बनती है, उससे भ्रांति पैदा होती है। यथार्थ में, वस्तुतः रोकना नहीं पड़ता, केवल चलाता नहीं हूं कि हाथ रुक जाता है।
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अर्जुन होना भी सरल नहीं है। वह कृष्ण उसको डंडे पर डंडे दिए चले जाते हैं। भागता नहीं है। संदेह है, लेकिन निष्ठा में भी कोई कमी नहीं है। संदेह है, तो प्रश्न उठाता है। निष्ठा में भी कोई कमी नहीं है, इसलिए भागता भी नहीं है।
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वासनायें चलने के लिए हमारा ही सहयोग मांगती हैं हमने कोई ऐसी वासना देखी है, जो हमारे बिना सहयोग के इंच भर सरक जाए? कभी बिना हमारे सहयोग के हमारे भीतर कोई भी वासना सरकी है? तो फिर जरा लौटकर देखना। जब वासना सरके, तो खड़े हो जाना और कहना कि मेरा सहयोग नहीं, अब तू चल। और हम पाएंगे, वहीं गिर गई, वहीं इंच भर भी नहीं जा सकती। हमारा ही सहयोग चाहिए।
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वासना सहयोग मांगती है हमारा। निर्वासना सिर्फ असहयोग मांगती है। निर्वासना के लिए कुछ करना नहीं है, वासना के लिए जो किया जा रहा है, वही नहीं करना है। वासना शक्ति मांगती है; न दीजिए शक्ति, तो निर्वासना फलित हो जाती है। ऐसा झंझावात से मुक्त हुआ चित्त स्वयं में प्रतिष्ठित हो जाता है। श्री कृष्ण कहते हैं, हे महाबाहो, जो स्वयं में प्रतिष्ठित हो जाता है, वह सब कुछ पा लेता है।

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