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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(श्री दादूवाणी ~ स्मरण का अंग. २)*
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*स्मरण नाम चितावणी*
*दादू पीव का नाम ले, तो मिटै सिर साल ।*
*घड़ी मुहूरत चालनां, कैसी आवै काल ॥३४॥*
मृत्यु के मुख में पड़े हुए, क्षणभंगुर इस शरीर में बुद्धिमान् पुरुषों की यत्किंचित भी आस्था नहीं है कि यह कल भी रहेगा या नहीं ! इसका कोई भरोसा नहीं । अतः शीघ्र ही भगवान् के नाम की महिमा जानकर भगवान् की भक्ति के प्रवाह को इसी समय प्रारम्भ कर देना चाहिये । समय की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिये । एक भक्त कहता है-
“हे कृष्ण ! आप के चरण-कमल रूपी पिंजरे में मेरा मन रूपी हँस अभी से प्रविष्ट हो जाय तो अच्छा हो ! क्योंकि प्राण निकलते समय तो मेरा कण्ठ वातपित्त कफ से अवरुद्ध हो जायेगा, उस समय आपका स्मरण कीर्तन कैसे हो सकेगा ।”
भागवत में लिखा है -
“भगवान् के नाम को सुन कर जो जीव कीर्तन करता है और पीड़ित होकर अकस्मात् आप का नाम लेता है, तथा नीचे गिरने पर या किसी बहाने से भी नाम-कीर्तन करता है तो उसके सम्पूर्ण पापों को भगवान् तत्काल नष्ट कर देते हैं । ऐसे भगवान् के अतिरिक्त मुमुक्षु-पुरुष किस दूसरे की शरण ग्रहण करेगा ॥३४॥”
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*स्मरण बिना सांस न ले*
*दादू औसर जीव तैं, कह्या न केवल राम ।*
*अंत काल हम कहेंगे, जम बैरी सौं काम ॥३५॥*
अनन्त योनियों में घूमते हुए इस जीव को भगवान् ने मनुष्य जन्म देकर भक्ति करने का सुअवसर दिया है । यदि मनुष्य जन्म पाकर भी उसको नहीं भजता है तो वह व्यर्थ ही जीता है । वह अन्तकाल में यमदूतों द्वारा ले जाते हुए न चाहता हुआ भी नरकगामी बनेगा । अतः हरिभजन करके मनुष्य जन्म को सफल बनाना चाहिये । श्रुति में लिखा है-
“इस जन्म में भगवान् को पहचान लिया तब तो जीवन सफल हो गया; अन्यथा महती हानि होगी ।”
यही सबसे बड़ी हानि है कि मनुष्य जन्म चला जायेगा । यह सबसे बडा हमारा अभाग्य होगा कि हम भगवान् वासदेव का स्मरण नहीं कर सके ॥३५॥
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*दादू ऐसे महँगे मोल का, एक सांस जे जाइ ।*
*चौदह लोक समान सो, काहे रेत मिलाइ ॥३६॥*
रे मानव ! तेरा एक श्वास ही चौदह लोकों के समान अमूल्य है । फिर तूं अपने जीवन को क्यों भोगों में नष्ट कर रहा है । जब एक श्वास की इतनी कीमत है तो फिर तेरा समग्र जीवन तो कितना अमूल्य होगा-यह सोच ! लिखा है-
“वैदर्यमणियों से बनी थाली में चन्दन की लकड़ियों से लहसुन को पकाता है, सुवर्ण निर्मित ल से, आक बोने के लिये, पृथ्वी को जोतता है, उसको धो धान बचाने के लिये कपूर के टुकड़ों की बाड़(दिवार) लगाता है । कितना मन्दभागी है वह ! ॥३६॥”
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*अमूल्य श्वास*
*सोई सांस सुजाण नर, सांई सेती लाइ ।*
*कर साटा सिरजनहार सौं, महँगे मोल बिकाइ ॥३७॥*
रे मानव ! तेरा प्रत्येक श्वास अमूल्य है, और उधर हरि भी अमूल्य है । तो तूं क्यों न अपने अमूल्य श्वास से प्रतिक्षण अमूल्य हरि को भजकर अपने जीवन को सफल कर लें !
लिखा है-
“हे मानस भ्रमर ! तूं व्यर्थ ही यह झंकाररुपी कोलाहल क्यों कर रहा है । मौन होकर हरिचरण कमलों के रस का पान कर । यदि तूं एक बार भी सम्पूर्ण तृषा को नष्ट करने वाले चिदानन्दस्वरूप मकरन्द का पान कर लेगा तो तेरा यह अहंकाररूपी मिथ्या कोलाहल शान्त हो जायेगा ! ॥३७॥”
(क्रमशः)

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