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*माया मारै लात सौ, हरि को घालै हाथ ।*
*संग तजै सब झूठ का, गहै साच का साथ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*कमला काढ का अंग ९४*
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माया मधु१ विधि काढ हीं, मति-सागर मधुरीख२ ।
तिनकी सरभरि३ करन को, रज्जब विरला पीख४ ॥९॥
जिस प्रकार मधुमक्षिका२ पुष्पों से मधु को निकाल लाती है, उसी प्रकार ज्ञान सागर संत मन से माया को निकाल लेते हैं, शहद१ की मक्खी२ की और उक्त संत की समता३ कौन कर सकता है, किन्तु ऐसा संत विरला ही देखा४ जाता है ।
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मन माया मिश्रित सदा, यथा अकलि१ में राग ।
रज्जब रागी एक को, दत२ दीपक ध्वनि जाग ॥१०॥
जैसे बुद्धि१ में राग मिला रहता है, वैसे ही मन में माया मिली रहती है । ऐसा राग का गाने वाला कोई एक विरला ही होता है । जिसकी गायन ध्वनि से दीपक जग जाय । वैसे ही ऐसा संत भी कोई विरला ही होता है जो मनसे माया२ को निकाल दे ।
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काया कुभंनी१ में रहै, शक्ति२ सर्प अवतार३ ।
साधू ज्ञाता गारुड़ी, इनके काढणहार ॥११॥
जीव सर्प का जन्म३ धारण करके पृथ्वी१ में रहता है, उसको निकालने वाला गरुड़ मंत्र का ज्ञाता गरुड़ी ही होता है, वैसे ही माया२ शरीर में रहती है, उसको निकालने वाला ज्ञानी संत ही होता है ।
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मनवा रावणि१ रिधि२ सु पराण३,
आसै४ आदित्य५ माहि धराण५ ।
कब कोई जीव लक्ष्मण होय,
माया मारि उतारै सोय ॥१२॥
जैसे मेधनाथ१ माया२ के द्वारा सूर्य मंडल५ में जा बैठा६ है, तब लक्ष्मण ने उसकी माया नष्ट करके उसे नीचे उतारा था, वैसे ही माया परायण३ मन भोगाशा४ में जा बैठता है, अब जब कोई लक्ष्मण के समान विरक्त जीव हो तो माया को नष्ट करके इस मन को भोगाशा से उतारे अर्थात भोगाशा नष्ट करे ।
(क्रमशः)

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