🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*कछु न कहावै आपको, काहू संग न जाइ ।*
*दादू निरपख ह्वै रहै, साहिब सौं ल्यौ लाइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ मध्य का अंग)*
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स्वरूप से संतुष्ट, इसे पहला स्थित प्रज्ञ का लक्षण श्री कृष्ण कहते हैं। हम कभी भी स्वयं से संतुष्ट नहीं हैं। यदि हमारा कोई भी लक्षण कहा जा सके, तो वह है, स्वयं से असंतुष्ट। हमारे जीवन की सम्पूर्ण धारा ही स्वयं से असंतुष्ट होने की धारा है। अकेले में हमें कोई छोड़ दे, तो अच्छा नहीं लगता, क्योंकि अकेले में हम अपने ही साथ रह जाते हैं। हमें कोई दूसरा चाहिए, साथ चाहिए। तभी हमें अच्छा लगता है, जब कोई और हो।
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और सब से आश्चर्य जनक बात ये हैं की, दो व्यक्तियों को साथ होना अच्छा लगता है और इन दोनों व्यक्तियों को ही एकांत में बुरा लगता है। जो अपने साथ ही आनंदित नहीं है, वह दूसरे को आनंद दे पाएगा? और जो अपने को भी इस योग्य नहीं मानता कि स्वम् को आनंद दे पाए, वह दूसरे को आनंद कैसे दे सकता है? लगभग हमारी अवस्था ऐसी ही है कि जैसे दो भिखारी मार्ग पर मिल जाएं और एक-दूसरे के सामने भिक्षा-पात्र फैला दें। दोनों भिखारी।
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श्री कृष्ण सर्वप्रथम जो उपाय बता रहे हैं गीता में, वो ये की स्वयं से संतुष्ट, स्वयं से तृप्त। स्वभावतः, जो अपने से तृप्त नहीं है, उसकी चेतना सदा दूसरे की तरफ बहती रहेगी, उसकी चेतना सदा दूसरे की तरफ कंपती रहेगी। वास्तव में जहां हमारा संतोष है, वहीं हमारी चेतना की ज्योति ढल जाती है। मिलता है वहां या नहीं, यह दूसरी बात है। परन्तु जहां हमें संतोष दिखाई पड़ता है, हमारे प्राणों की धारा उसी तरफ बहने लगती है।
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तो हम आठों प्रहर बहते रहते हैं यहां-वहां। एक स्थान को छोड़कर, अपने में होने को छोड़कर, हमारा होना सब तरफ डांवाडोल होता है। फिर जिसके पास भी बैठ जाते हैं, थोड़ी देर में वह भी उबा देता है। मित्र से भी ऊब जाते हैं, प्रेमी से भी ऊब जाते हैं, क्लब से भी ऊब जाते हैं, खेल से भी ऊब जाते हैं, मोबाइल फ़ोन से भी ऊब जाते हैं। तो फिर विषय बदलने पड़ते हैं। फिर दौड़ शुरू होती है, तुरंत बदलो, नई संवेदना की। सब पुराना पड़ता जाता है, नया लाओ, नया लाओ, नया लाओ। उसमें हम दौड़ते चले जाते हैं।
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परन्तु कभी यह नहीं देखते कि जब मैं अपने से ही असंतुष्ट हूं, तो मैं कहां संतुष्ट हो सकूंगा? जब मैं भीतर ही रुग्ण हूं, तो मैं किसी के भी साथ होकर कैसे स्वस्थ हो सकूंगा? जब दुख मेरे भीतर ही है, तब किसी और का सुख मुझे कैसे भर पाएगा?
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*दूसरे में संतोष खोजना ही प्रज्ञा की अस्थिरता है, स्वयं में संतोष पा लेना ही प्रज्ञा की स्थिरता है। परन्तु स्वयं में संतोष वही पा सकता है, जो दूसरे में संतोष नहीं मिलता है, इस सत्य को अनुभव करता है। जब तक यह भ्रम बना रहता है कि मिल जाएगा, इसमें नहीं मिलता तो दूसरे में मिल जाएगा, दूसरे में नहीं मिलता तो तीसरे में मिल जाएगा, जब तक यह भ्रम बना रहेगा, तब तक जन्मों-जन्मों तक प्रज्ञा अस्थिर रहेगी।*
*परन्तु मनुष्य बहुत अदभुत प्राणी है, इस पृथ्वी पर। यदि उसका सबसे अदभुत कोई रहस्य है, तो वह यही है कि वह अपने को धोखा देने में अनंत रूप से समर्थ है। उसकी सामर्थ्य है धोखा देने की। एक वस्तु से धोखा टूट जाए, टूट ही नहीं पाता कि उसके पहले वह अपने धोखे का दूसरी व्यस्था कर लेता है।*
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कृष्ण से अर्जुन ने जो बात पूछी है, उसके लिए पहला उत्तर बहुत ही गहरा है, मौलिक है, आधारभूत है। *जब तक चित्त सोचता है कि कहीं और सुख मिल सकता है, तब तक चित्त स्वयं से असंतुष्ट है। जब तक चित्त स्वयं से असंतुष्ट है, तब तक दूसरे की आकांक्षा, दूसरे की अभीप्सा उसकी चेतना को कंपित करती रहेगी, दूसरा उसे खींचता रहेगा।* और उसके दीए की लौ दूसरे की तरफ दौड़ती रहेगी, तो थिर नहीं हो सकती। *जैसे ही--दूसरे में सुख नहीं है--इसका बोध स्पष्ट हो जाता है, जैसे ही दूसरे पर खूंटियां गाड़ना मन बंद कर देता है, वैसे ही सहज चेतना अपने में थिर हो जाती है। स्थिरधी की घटना घट जाती है।*

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