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*द्वितीय भाग : शब्द*, *राग कान्हड़ा ४ (गायन समय रात्रि १२ से ३)*
साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, राज. ॥
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१०८ - परिचय विनती । भँगताल
नूर नैन भर देखन दीजै,
अमी महारस भर भर पीजै ॥टेक॥
अमृत धारा वार न पारा,
निर्मल सारा तेज तुम्हारा॥१॥
अजर जरँता अमी झरँता,
तार अनन्ता बहु गुणवन्ता ॥२॥
झिलमिल साँई ज्योति गुसाँई,
दादू मांहीं नूर रहांई ॥३॥
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निरन्तर साक्षात्कारार्थ विनय कर रहे हैं - प्रभो ! अपना रूप हमें ज्ञान - विचार नेत्रों से इच्छा भरके देखने दीजिये । हम स्वरूपामृत रूप महारस का इच्छा भर २ कर पान करेंगे ।
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आपके निर्मल पूर्ण तेज स्वरूप अमृत की धारा का वार - पार नहीं है ।
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आप न पचने वाले को भी पचाने वाले हैं । भक्तों के लिये दर्शनामृत टपकाने वाले हैं । अनन्तों का उद्धार करने वाले हैं । अपार गुणों वाले हैं ।
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प्रभो ! आपकी स्वरूप ज्योति झिलमिल रूप से मेरे अन्दर ही प्रकाशित हो रही है ।
(क्रमशः)
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