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*आये एकंकार सब, साँई दिये पठाइ ।*
*आदि अंत सब एक है, दादू सहज समाइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*दुष्ट दया का अंग ९३*
इस अंग में दुष्टता में भी दया रहती है यह विचार बता रहे हैं ~
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देखहु दुष्ट दयालु गति१, ज्यों बालक पितु मात ।
रज्जब काढै मारि मुख, मूरख माटी खात ॥१॥
जैसे मूर्ख बालक मिट्टी खाता है तब माता पिता उसके मुख पर थप्पड मार कर मुख से मिट्टी निकाल देते हैं यह दुष्टा में दया है वैसे ही दयालु सज्जन मूर्ख की भलाई के लिये ही मुर्ख को दंड देते हैं, वह उसकी दुष्टता में दया की चेष्टा१ होती है ।
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सकल प्राणि प्रीतम किये, परिहर कुमति कुसंग ।
रज्जब कै१ रस२ रोस३ यहु, दुष्ट दया का अंग ॥२॥
सभी प्राणियों को प्रियतम प्रभु ने ही उत्पन्न किया है किन्तु उनकी उनकी कुबुद्धि और कुसंग को छोड़ दे । उनसे प्रेम२ वा१ क्रोध३ को तो उनकी भलाई के लिये ही करे यही दुष्ट दया के अंग का अभिप्राय है ।
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कुल१ अरवाह२ सौं रहम३ कर, बद४ अमलों५ सौं वैर ।
महर६ गुस्सा मकसूद७ का, रज्जब के नहिं गैर८ ॥३॥
सभी१ जीवात्मा२ओं पर दया३ कर किन्तु बुरे४ काम५ करने वालों से उसका बुरा काम छुड़ाने के लिये वैर कर, हमारी दया६ और क्रोध दोनों सबके हित के अभिप्राय७ से होते हैं, हमारे पराया८ तो कोई है ही नहीं ।
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मन दयालु मुख दुष्ट गति१, यथा नीम संयोग ।
रज्जब कड़वा पीवतां, पीछे काटे रोग ॥४॥
जैसे नीम का मुख से संयोग होता है तब पीते समय तो कटु लगता है किन्तु पिछे रोग को नष्ट कर देता है, वैसे ही सज्जन के मन में तो दया रहती है और मुख से सुधार के लिये कठोर वचन कहना दुष्ट की-सी चेष्टा१ ज्ञात होती है ।
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित दुष्ट दया का अंग ९३ समाप्तः ॥सा. २९०८॥
(क्रमशः)
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