रविवार, 24 नवंबर 2019

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*साधु मिलै तब ऊपजै, हिरदै हरि का हेत ।*
*दादू संगति साधु की, कृपा करै तब देत ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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साभार ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी ​ 
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*श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु* *भाग ३* *भेष भक्ति* 
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एक राजा कि साधु भेष में बड़ी प्रीति थी । वह साधु सेवा बहुत करता था किन्तु भगवत् विमुख भांड आदि को कुछ भी नही देता था । कुछ भांड साधु भेष बना कर राजा के पास गये । राजा ने अपने भाव के अनुसार उनका सत्कार किया ।
स्वभाववश भांडों ने वहां भी अपना नाच गानादि आरंभ कर दिया । यह देख कर राजा बोले - 'धन्य है भगवत् भक्तों को, जो अपने सेवकों को ढोल बजाकर तथा नाच गान करके भी कृतार्थ करते है । फिर विदाई के समय राजा ने एक मोहरों का थाल भाँडों के आगे भेंट रखा किंतु राजा के विश्वास तथा सतसंग से भांडों का मन भी बदल गया ।
वे उसे न लेकर स्वंय भगवत् भजन में लग गये । इससे सूचित होता है कि भेष भक्त भेष से प्रसन्न होते है और उनके संग से कपटी भी सच्चे भक्त बन जाते हैं ।
भेष भक्त का भेष लख, मुख प्रसन्न हो जात ।
भांडों का नाचादि लख, धन्य कहा हर्षात ॥२२४॥
#### श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु ####
### श्री नारायणदासजी पुष्कर, अजमेर ###
### सत्यराम सा ###

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