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🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*आप अकेला सब करै, औरों के सिर देइ ।*
*दादू शोभा दास को, अपना नाम न लेइ ॥*
*आप अकेला सब करै, घट में लहरि उठाइ ।*
*दादू सिर दे जीव के, यों न्यारा ह्वै जाइ ॥*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com
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हमारे अनुभव में दो शब्द आते हैं, आसक्त और विरक्त, अनासक्त कभी नहीं आता। या तो हम किसी वस्तु की तरफ आकर्षित होते हैं और या किसी चीज से विकर्षित होते हैं। यदि हमे कुछ अच्छा लगा तो आकर्षित होते हैं; और यदि अच्छा नहीं लगा तो विकर्षित होते हैं। या तो हम दौड़ते हैं किसी वस्तु को पाने के लिए और या हम दौड़ते हैं किसी वस्तु से बचने के लिए। ये हमारे दो अनुभव हैं।
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*अनासक्ति इन दोनों का मध्य बिंदु है, ठीक इन दोनों के बीच में, जहा न तो आसक्त काम करता और न विरक्त काम करता है। बहुत अदभुत बिंदु है अनासक्ति का, जहां से न तो हम किसी वस्तु के लिए आतुर होकर पागल होते हैं और न आतुर होकर बचने के लिए पागल होते हैं। नहीं, जहा हम किसी वस्तु के प्रति कोई रुख ही नहीं लेते, जहां किसी वस्तु के प्रति हमारी कोई दृष्टि ही नहीं रहती; हम बस साक्षी ही होते हैं। अनासक्त का अर्थ है, विरक्त भी नहीं, आसक्त भी नहीं।*
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विरक्त होना बहुत आसान है, आसक्ति का ही दूसरा भाग है, इसलिए। और जिस वस्तु में भी हमारी आसक्ति होती है, उसमें ही आज नहीं कल हमारी विरक्ति अपने आप हो जाती है। आज एक घर में बहुत आसक्ति है, कल वह मिल जाएगा, परसों उसमें रहेंगे, दस दिन बाद भूल जाएगा, आसक्ति खो जाएगी। फिर धीरे-धीरे विरक्ति आ जाएगी। जिस दिन हमे कोई दूसरा घर दिख जाएगा आसक्ति को पकड़ने के लिए, उसी दिन इस घर से विरक्ति हो जाएगी। जिस वस्तु से भी हम आकर्षित होते हैं, किसी न किसी दिन उससे विकर्षित होते हैं। आकर्षण और विकर्षण, एक ही प्रक्रिया के दो भाग हैं। अनासक्ति इस पूरी प्रक्रिया के पार है।
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अनासक्त का अर्थ कि न हमें अब खींचती है वस्तु, न हमें हटाती है, न हमें बुलाती है, न हमें भगाती है। हम खड़े रह गए। अर्थ यही है, न इस तरफ, न उस तरफ, दोनों तरफ से उपेक्षा है। न आसक्ति, न विरक्ति, दोनों तरफ से पार है। न तो धन खींचता, न धन भगाता। श्री कृष्ण ने अनासक्ति का प्रयोग किया है। श्री कृष्ण कहते हैं, अनासक्ति, जहां न आसक्ति हो, न विरक्ति हो, दोनों ही न रह जाएं।
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परन्तु आसक्त भी कर्म करता और विरक्त भी कर्म करता। अनासक्त क्या करेगा? आसक्त भी कर्म करता, विरक्त भी कर्म करता; यद्यपि जो कर्म आसक्त करता, विरक्त उससे उलटे कर्म करता। यदि आसक्त धन कमाने का काम करता, तो विरक्त धन छोड़ने का, त्यागने का काम करता। यदि आसक्त पदों का लोलुप होता और पदों की सीढ़ियां चढ़ने के लिए पागल होता, तो विरक्त पदों से भागने के लिए आतुर और उत्सुक होता, सीढ़ियां उतरने को। आसक्त और विरक्त दोनों कर्म में रत होते, परन्तु दोनों के रत होने का ढंग विपरीत होता, एक दूसरे की तरफ पीठ किए होते। अनासक्त क्या करेगा? *अनासक्त न तो आसक्त की तरह कर्म करता और न विरक्त की तरह। अनासक्त के कर्म करने की गुणवत्ता बदल जाती है।*
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विरक्त का काम करने का रुख, दिशा बदल जाती है, उलटी हो जाती है। भीतरी चित्त जरा भी नहीं बदलता, कर्म की दिशा प्रतिकूल हो जाती है। यदि आसक्त सीधा खड़ा है, तो विरक्त शीर्षासन लगाकर खड़ा हो जाता है। और कोई भेद नहीं होता, भीतर मनुष्य वही का वही होता है। गुणवत्ता जरा भी नहीं बदलती, गुण जरा भी नहीं बदलता। *अनासक्त का गुणधर्म बदलता है। अनासक्त दोनों कार्य कर सकता है। जो विरक्त करता है, वह भी कर सकता है, जो आसक्त करता है, वह भी कर सकता है। परन्तु करने वाला चित्त बिलकुल और ढंग का होता है।*
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इन श्लोकों में अष्ट्रावक्र गीता में जनक की बात कही हैं श्री कृष्ण ने, अनासक्तियोग। जहा हमें दो दिखाई पड़ते हैं, वहा तीसरा भी दिखाई पड़ने लगे। दो तो हमें सदा दिखाई पड़ते हैं, तीसरा दिखाई नहीं पड़ता है। विरक्त को भी दो दिखाई पड़ते हैं। आसक्त को भी दो दिखाई पड़ते हैं, मैं, और वह, जिस पर मैं आसक्त हूं। विरक्त को भी दो दिखाई पड़ते हैं, मैं, और वह, जिससे मैं विरक्त हूं। अनासक्त को तीन दिखाई पड़ते हैं, वह जो आकर्षण का केंद्र है या विकर्षण का, और वह जो आकर्षित हो रहा या विकर्षित हो रहा, और एक और भी, जो दोनों को देख रहा है।
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यह जो दोनों को देख रहा है,अर्जुन से श्री कृष्ण कहते हैं, तू इसी में प्रतिष्ठित हो जा। इसमें तेरा हित तो है ही, तेरा मंगल तो है ही, इसमें लोकमंगल भी है। क्यों, इसमें क्या लोकमंगल है? यह तो मेरी समझ में पडता है, आपकी भी समझ में पड़ता है कि अर्जुन का मंगल है। अनासक्त कोई हो जाए, तो जीवन के परम आनंद के द्वार खुल जाते हैं।
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