बुधवार, 13 नवंबर 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*इन्द्री के आधीन मन, जीव जंत सब जाचै ।*
*तिणे तिणे के आगे दादू, तिहुं लोक फिर नाचै ॥*
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जीवन के सारे अनुभव द्वंद्व के अनुभव हैं। जीवन का सारा विस्तार ही द्वंद्व और द्वैत का ध्रुवीय विस्तार है। यहां कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसके विपरीत न हो। यहां कुछ भी नहीं है ऐसा, जिसका प्रतिकूल न हो। यहां कुछ भी नहीं है ऐसा, जिससे उलटा न हो। जगत का सारा अस्तित्व द्वैत है, ध्रुवीय है।
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ठीक वैसे ही जैसे एक आर्किटेक्ट, एक वस्तु शिल्पकार, एक भवन निर्माता द्वार बनाता है। तो कभी आपने देखा, द्वार पर वह कोई सहारे नहीं लेता। केवल उलटी ईंटों को गोलाई में जोड़ देता है। केवल ईंटों को उलटा और गोलाई में जोड़ देता है और द्वार बन जाता है। वह सारा भवन, भवन का सारा वजन उस गोलाई पर टिक जाता है। कभी आपने विचार किया कि बात क्या है? उन उलटी ईंटों का जो तनाव है, वे उलटी ईंटें एक दूसरे को दबाती हैं, सम्पूर्ण भवन के वजन को उठा लेती हैं। यदि एक सी ईंटें लगा दी जाएं, एक कोने से दूसरे कोने तक एक ही रुख वाली ईंटें लगा दी जाएं, तो भवन तत्काल गिर जाएगा, बन ही नहीं सकता।
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ठीक वैसे ही हमारे जीवन का सम्पूर्ण भवन उलटी ईंटों पर टिका हुआ है। यहां सुख की भी ईंट है और दुख की भी ईंट है। यहां राग की भी ईंट है और विराग की भी ईंट है। यहां प्रेम की भी ईंट है और घृणा की भी ईंट है। और ध्यान रहे, इस जगत में अकेली प्रेम की ईंट पर भवन निर्मित नहीं हो सकता, घृणा की ईंट भी उतनी ही आवश्यक है। यहां मित्र भी उतना ही आवश्यक है, शत्रु भी उतना ही आवश्यक है। यहां सब उलटी वस्तुएं आवश्यक हैं। क्योंकि उलटे के तनाव पर ही जीवन खड़ा होता है।
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श्री कृष्ण कहते हैं अर्जुन से, इंद्रियों के सब अनुभव द्वंद्व ग्रस्त हैं। वहां सुख आता है, तो पीछे दुख आता है। वहां सुख आता है, तो दुख को निमंत्रण देकर ही आता है। वहां दुख आता है, तो जल्दी मत करना, धैर्य मत खोना, पीछे सुख आता ही होगा। जैसे लहर के पीछे ढलान आता है, और जैसे पहाड के पीछे खाई आती है, ऐसे ही प्रत्येक अनुभव के पीछे विपरीत अनुभव आता है। आ ही रहा है।
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जब लहर आ रही है सागर की, तो समझें कि पीछे लहर का गड्ढा भी आ रहा है, क्योंकि बिना उस गड्ढे के लहर नहीं हो सकती। और जब पहाड देखें, उतुंग शिखर आकाश को छूता, तो जान लेना कि पास ही खाई भी है, खड्डे भी पाताल को छूते हैं। दोनों के बिना दोनों नहीं हो सकते। जब वृक्ष आकाश में उठता है छूने को, तो उसकी जड़ें नीचे जमीन में उतर जाती हैं पाताल को छूने को। यदि जड़ें नीचे न जाएं, तो वृक्ष ऊपर नहीं जा सकता।
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जीवन वैपरीत्य पर निर्भर है। यह हमें विचार में न आए, तो हम एक को बचाने के प्रयास में लग जाते हैं। अज्ञानी एक को बचाने का प्रयास करता है। ज्ञानी क्या करेगा? या तो ज्ञानी दोनों को छोड़ दे, दोनों को छोड़ दे, तो तत्क्षण जीवन के बाहर हो जाएगा, जीवन के भीतर नहीं रह सकता। या दोनों को एक साथ स्वीकार कर ले।
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*श्री कृष्ण दूसरी परामर्श दे रहे हैं। वे कह रहे हैं, तू दोनों को एक साथ स्वीकार कर ले। यहां सुख भी है, यहां दुख भी है। जन्म भी है, मृत्यु भी है। इंद्रियां अच्छा भी लाती हैं, बुरा भी लाती हैं। इंद्रियां प्रीतिकर को भी जन्माती हैं, अप्रीतिकर को भी जन्माती हैं। इंद्रियां सुख का भी आधार बनतीं और दुख का भी आधार बनतीं। ज्ञानी इन दोनों के जोड़ को, अनिवार्य जोड़ को जानकर दोनों में रहते हुए भी दोनों के बाहर हो जाता है, साक्षी हो जाता है। समझता है कि ठीक है; सुख आया तो ठीक है; दुख आया तो ठीक है। क्योंकि वह जानता है कि वे दोनों ही आ सकते हैं। इसलिए वह इस भूल में नहीं पड़ता कि एक को बचा लूं और दूसरे को छोड़ दूं। वह इस उपद्रव में नहीं पड़ता है। अज्ञानी उसी उपद्रव में पड़ता है और बेचैन हो जाता है। ज्ञानी चैन में होता है, बेचैन नहीं होता।*
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*इसका यह अर्थ नहीं कि ज्ञानी पर दुख नहीं आते। ज्ञानी पर दुख आते हैं, परन्तु ज्ञानी दुखी नहीं होता। इसका यह अर्थ नहीं कि ज्ञानी पर सुख नहीं आते। ज्ञानी पर सुख आते हैं, परन्तु ज्ञानी सुखी नहीं होता। किस अर्थ में सुखी नहीं होता? इस अर्थ में सुखी नहीं होता कि जो भी आता है, वह उससे अपना तादात्म्य नहीं करता है। सुख आता है, तो वह कहता है, ठीक है, सुख भी आया, वह भी चला जाएगा। दुख आता है, वह कहता है, ठीक है; दुख भी आया, वह भी चला जाएगा। और मैं, जिस पर दुख और सुख आते हैं, दोनों से अलग हूं। ऐसा पृथकत्व, ऐसा भेद अपने अलग होने के अनुभव को वह कभी भी नहीं छोड़ता और खोता।*
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*न, सुख की लहर आई है, ठीक है, आ जाने दें, डुबाने दें, जाने दें। तब समझें कि सागर है जीवन का। आता है सुख, आता है दुख; मित्र आते हैं, शत्रु आते हैं; सम्मान-अपमान, गाली आती, प्रशंसा आती। जन्म आता हैं, मृत्यु भी आती हैं, कभी कोई फूलमालाएं डाल जाता, कभी कोई पत्थर फेंक जाता। जीवन में दोनों आते रहते हैं। ज्ञानी दोनों को देखकर अपने को तीसरा जानता है।*
ऐसा अनासक्त हुआ व्यक्ति, श्री कृष्ण कहते हैं, जीवन के समस्त बंधन से, जीवन के सारे कारागृह से मुक्त हो जाता है।

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