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*साहिब सौं मिल खेलते, होता प्रेम सनेह ।*
*दादू प्रेम सनेह बिन, खरी दुहेली देह ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*मेलग का अंग ९०*
इस अंग में मिल कर चलने की विशेषता बता रहे हैं ~
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ग्रासों गहिये पंच मिल, त्यों पंचों मिल राम ।
जन रज्जब मेला भला, मेलै सरै सु काम ॥१॥
पंच अंगुली मिलकर ग्रासों को ग्रहण करती है, वैसे ही पांचों ज्ञानेन्द्रय मिलकर राम परायण होती हैं तब राम का दर्शन होता है । मिलकर काम करना बहुत अच्छा है, मिलकर करने से कार्य सिद्ध होता है ।
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श्रवण नैन मुख नासिक, अधर दंत कर पाय ।
रज्जब निरखत नौ जुगल१, मोह्या मतै२ मिलाय ॥२॥
दोनों कान, दोनों नेत्र, मुख के दो भाग, ऊपर के दाँतो की जोड़ी, नीचे के दाँतों की जोड़ी, दोनों नासिका, दोनों होठ, दोनों हाथ, दोनों पैर, इन नौ की जोड़ी१ को देखते हुये मिलकर काम करने के सिद्धान्त२ से हम तो मोहित हैं । अत: उक्त नौ के समान मिलकर कार्य करना चाहिये ।
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अंट सु लेखनि दोय शिर, कारज काले एक ।
त्यों रज्जब द्वै मिल चलै, यो ही बड़ा विवेक ॥३॥
कलम के दो अंट रूप दो शिर होते है, किन्तु लिखना रूप काम के समय दोनों एक हो जाते हैं, वैसे ही काम के समय दो को मिलकर ही चलना चाहिये, यही महान ज्ञान है ।
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पंच तत्त्व करि घट भया, प्राणि करै तहं राज ।
रज्जब बिखरै बहु विघन, आतम होय अकाज ॥४॥
पंच तत्त्वों का शरीर बनता है, प्राणी उसका शासन करता है । यदि वे पंच तत्त्व अलग - अलग होने लगे तो बहुत से विघ्न होंगे, और जीवात्मा की हानि होगी । मिलकर चलने से ठीक रहता है ।
(क्रमशः)

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