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*दादू मेरा वैरी मैं मुवा, मुझे न मारै कोइ ।*
*मैं ही मुझको मारता, मैं मरजीवा होइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*दया निर्वैरता का अंग ९१*
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मारणहारा मारिये, कीजे नहीं उपाधि ।
जन रज्जब यूं जीतिये, घट१ का वैरी साधि२ ॥४१॥
जो अपने को मारने वाला है, उस मन को ही मारो, अन्य जीवों को मारने की उपाधि मत करो । इस प्रकार अपने शरीर१ के भीतर के शत्रु को साधना२ करके जीतना चाहिये ।
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काहू परि चढिये नहीं, मन कर्म बिसवा बीस ।
रज्जब रथ तल१ कृष्ण के, सोउ पंखि पर शीश ॥४२॥
मन, वचन, कर्म से बीसों बिसवा किसी के उपर नहीं चढना चाहिये । देखो, कृष्ण के नीचे१ रथ रूप से रहता है, वही गरुड़ पक्षी कृष्ण के शिर पर ध्वजा में रहता है भाव यह है कि तुम चढोगे वह तुम्हारे पर चढेगा ।
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पग१ पहुण२ प्रभुजी दिये, अतिगति३ होय कृपालु ।
रज्जब तिनहुं चढ्या फिरै, निर्वैरी सु दयालु ॥४३॥
अत्याधिक३ कृपालु होकर प्रभु ने चढने के लिये पैर१ रूप पशु२ दिये हैं । निर्वैरी दयालु नर उन्हीं पर चढकर विचरता है । अन्य पर नहीं चढता ।
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित दया निर्वैरता का अंग ९१ समाप्तः ॥सा. २८९४॥
(क्रमशः)
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