बुधवार, 20 नवंबर 2019

= १०५ =

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🙏 *#श्रीदादूअनुभववाणी* 🙏
*द्वितीय भाग : शब्द*, *राग कान्हड़ा ४ (गायन समय रात्रि १२ से ३)*
साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, राज. ॥
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१०५ - माया । मल्लिका मोद ताल
https://youtu.be/Ll9NDKjZk58
काहू तेरा मरम न जाना रे, सब भये दीवाना१ रे ॥टेक॥
माया के रस राते माते२, जगत भुलाना रे ।
को काहू का कह्या न मानै, भये अयाना रे ॥१॥
माया मोहे मुदित मगन, खान खाना रे ।
विषिया रस अरस परस, साच ठाना रे ॥२॥
आदि अंत जीव जन्त, किया पयाना३ रे ।
दादू सब भरम भूले, देखि दाना४ रे ॥३॥

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साँसारिक प्राणी मायिक सुखों में फंस कर परमात्मा को भूल रहे हैं, यह कहते हैं - प्रभो ! आपके रहस्य मय स्वरूप को किसी भी सँसारी प्राणी ने नहीं जाना है । 

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सब जगत् के प्राणी मायिक विषय - रस की अनुरक्ति से मस्त२ पागल१ हुये आपको भूल रहे हैं और ऐसे अनजान हो रहे हैं - कोई भी किसी भी भले मानव का कहना नहीं मानते । 
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माया से मोहित विषय - रस में मग्न प्रसन्नता से अपने को सरदारों का सरदार मान रहे हैं । विषय - रस से अरस - परस मिलकर विषयानन्द को ही सच्चा सुख मान लिया है 
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और जन्म से मरण पर्यन्त जीव जन्तुओं ने विषयों की ओर ही गमन३ किया है । सब बल - बुद्धिशाली४ जीव भी विषयाहार४ को देखकर भ्रम - वश भगवान् को भूल रहे हैं ।
(क्रमशः)

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