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*अन्तर सुरझे समझ कर, फिर न अरूझे जाइ ।*
*बाहर सुरझे देखतां, बहुरि अरूझे आइ ॥*
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साभार ~ satsangosho.blogspot.com
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मनुष्य का मन निरंतर ही आज्ञा चाहता है। मनुष्य का मन, कोई और तय कर दे, ऐसी आकांक्षा से भरा होता है। निर्णय करना संताप है; निर्णय करने में चिंता है; स्वयं ही विचार करना तपश्चर्या है। मनुष्य का मन चाहता है, निर्णय भी न करना पड़े। कुछ भी न करना पड़े। सत्य ऐसे ही उपलब्ध हो जाए, बिना थोड़े-से भी श्रम, विचार, तपश्चर्या के।
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अर्जुन श्री कृष्ण से कहते है, आपने कर्म-संन्यास की बात कही, आपने निष्काम कर्म की बात कही। परन्तु मुझे तो ऐसा सुनिश्चित मार्ग बता दें, जिसमें मैं आश्वस्त होकर चल सकूं।
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इस संबंध में बहुत-सी बातें समझ लेने जैसी हैं। श्री कृष्ण ने इस बीच जो भी बातें कहीं, वे अर्जुन को आदेश की तरह नहीं हैं; अर्जुन के सामने समस्याओं को खोलकर रख देने का प्रयास है। जीवन के सारे मार्गो पर प्रकाश डालने का प्रयास है। अंतिम निर्णय अर्जुन के हाथ में ही छोड़ा है कि वह निर्णय करे, संकल्प करे, निष्पत्ति अर्जुन स्वयं ले।
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इस जगत में जो श्रेष्ठतम गुरु हैं, वे सदा ही शिष्यों को निष्पत्ति देने से बचते हैं। क्योंकि जो निष्पत्ति दी हुई होती है, उधार, बासी, मृत हो जाती है। जो निष्पत्ति, जो निष्कर्ष स्वयं लिया होता है, उसकी जड़ें स्वयं के प्राणों में होती हैं। जिस परिणाम पर व्यक्ति अपने ही चिंतन और खोज और शोध से पहुंचता है, वह निर्णय उसके व्यक्तित्व को रूपांतरित करने की क्षमता रखता है।
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जो निर्णय बाहर से आते हैं, उधार, विजातीय, उनकी कोई जड़ें व्यक्ति की स्वयं की आत्मा में नहीं हो पाती हैं। उन पर कोई अनुसरण भी करे, तो भी वे आचरण की सतह ही निर्मित करती हैं, आत्मा नहीं बन पाती हैं। जैसे बाजार से फूल लाकर हमने गुलदस्ते में लगा लिए हों, ऐसे ही दूसरे से मिले निर्णय भी गुलदस्ते के फूल बन जाते हैं; परन्तु जमीन में उगे हुए फूल नहीं हैं, प्राणवान, जीवित, जमीन से रस को लेते हुए, सूरज से रोशनी को पीते हुए, हवाओं में नाचते हुए, जिंदा नहीं हैं।
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परन्तु अर्जुन की आकांक्षा वही है जो सभी व्यक्तिओं की आकांक्षा है। वह कहता है, मुझे सुनिश्चित कह दें; उलझाव में न डालें। ऐसी सब बातें न कहें, जिनमें मुझे सोचना पड़े और तय करना पड़े। आप ही मुझे कह दें कि क्या ठीक है। जो वास्तव में ठीक हो, मुझे कह दें।
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श्री कृष्ण को भी सरल है यही कि जो वास्तव में ठीक है, वही कह दें। परन्तु जो व्यक्ति ऐसी मांग कर रहा हो कि जो वास्तव में ठीक है, वही मुझे कह दें, उससे वास्तवि बात कहनी हानिकारक है। क्योंकि ठीक बात को पाकर वह सदा के लिए ही बचकाना रह जाएगा। वह कभी प्रौढ़ नहीं हो सकता है।
इसलिए वे गुरु खतरनाक हैं, जिनके नीचे शिष्य सदा ही बचकाने, अप्रौढ़ रह जाते हों। वे गुरु खतरनाक हैं, जो निष्कर्ष दे देते हों। ठीक गुरु तो समस्याएं देता है। ठीक गुरु तो प्रश्न देता है। निश्चित ही ऐसे प्रश्न, ऐसी समस्याएं, ऐसे उलझाव, जिनसे गुजरकर यदि व्यक्ति चलने का साहस और हिम्मत जुटाए, तो निष्कर्ष पर अवश्य ही पहुंच सकता है।
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अर्जुन कहता है, मुझे तो आप जानते ही हैं, वही कह दें, जो ठीक है। मुझे उलझाएं मत। मैं वैसे ही बड़े संभ्रम में,वैसे ही बड़े संशय में हूं, वैसे ही बहुत अनिश्चय में डूबा हुआ हूं। इतनी बातें न करें कि मैं और उलझ जाऊं।
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अर्जुन जानता है कि उलझा हुआ है। परन्तु उलझे हुए मन को सुलझा हुआ सत्य भी मिल जाए, तो उसे भी उलझा लेता है। सुंदरतम व्यक्ति को भी हम विकृत आईने के सामने खड़ा कर दें, तो आईना तत्काल उसे विकृत कर लेता है। श्रेष्ठतम चित्र को भी हम, आंखें कमजोर हों, बिगड़ गई हों, ऐसे व्यक्ति के सामने रख दें, तो भी आंखें उस श्रेष्ठतम चित्र को कुरूप कर लेती हैं।
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निश्चित ही श्री कृष्ण सीधे निष्कर्ष की बात कह सकते हैं, परन्तु उलझा हुआ अर्जुन समझ कैसे पाएगा, अर्जुन उलझा हो, तो सुलझी हुई बात को भी उलझा लेगा। इसलिए श्री कृष्ण को प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। अर्जुन का उलझाव हल हो, तो ही सुलझे हुए सत्यों को सुनने की क्षमता आ सकती है।
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*हम वही समझ पाते हैं, जो हम समझ सकते हैं। हम अपने से ज्यादा कभी कुछ नहीं समझ पाते हैं। और हम वही अर्थ निकाल लेते हैं, जो हमारे भीतर पड़ा है। हम वही अर्थ नहीं निकाल पाते हैं, जो श्रीकृष्ण जैसे परब्रह्म बोलते हैं।*
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श्री कृष्ण वैसे गुरु नहीं हैं। वे अर्जुन को कुछ भी देने के लिए राजी नहीं हैं, जिसको पाने की क्षमता स्वयं अर्जुन में न हो। और अर्जुन में यदि उसे पा लेने की क्षमता हो, तो श्री कृष्ण उसे देने को तैयार हो सकते हैं। फिर कोई भेद नहीं पड़ता। यदि एक व्यक्ति पाने के लिए तैयार है श्रम करने को, तो उसे सत्य की किरण दी भी जा सकती है।
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यह बहुत विरोधाभासी बात दिखाई पड़ेगी। जिनकी क्षमता नहीं है, उन्हें दिया नहीं जा सकेगा; यद्यपि जिनकी क्षमता नहीं है, वे सदा भिखारी की तरह मांगते हैं। और जिनकी क्षमता है, उन्हें सदा दिया जा सकता है; यद्यपि जिनकी क्षमता है, वे कभी भी भिखारियों की तरह मांगते नहीं हैं। अब यह बड़ी उलटी बात है।
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सत्य के द्वार पर जो भिखारी की तरह खड़ा होगा, वह खाली हाथ वापस लौटेगा। सत्य के द्वार पर तो जो सम्राट की तरह खड़ा होता है, उसे ही सत्य मिलता है। अभी भी श्री कृष्ण भिखारी को पा रहे हैं अर्जुन में। इस वचन में भी अर्जुन ने अपने भिखारी होने की ही घोषणा की है।

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