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*आपा मेटै मृत्तिका, आपा धरै आकास ।*
*दादू जहाँ जहाँ द्वै नहीं, मध्य निरंतर वास ॥*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com
निर्द्वद्वो बालवत धीमान् एवं एव व्यवस्थित:।
वही है बुद्धिमान जो निर्द्वंद्व बालक की भांति हो गया। वही है धीमान, उसी के पास प्रतिभा है। जैसा है वैसा ही उसमें ही स्थित, अन्यथा की कोई मांग नहीं, जरा भी तरंग नहीं उठती अन्यथा की ! बहुत कठिन है यह समझना। है तो बहुत सरल, लेकिन समझना कठिन है। क्योंकि जो समझाया गया है वह इसके बिलकुल विपरीत पड़ता है। समझाया गया है चोरी छोड़ो, अचोर बनी; झूठ छोड़ो, सच बोलो। यह सच के ऊपर जा रही है बात।
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जो द्वंद्व हैं—चोरी बुरी और अचोरी अच्छी, और हिंसा बुरी और अहिंसा अच्छी—ये चंचल चित्त की लहरों से उठी हुई धारणायें हैं। हेयोपादेय ! यह अच्छा, यह बुरा; यह शुभ,यह अशुभ !
कहीं तो कोई एक दशा होगी, न जहां कुछ शुभ रह जाता, न अशुभ।
कहीं तो कोई एक दशा होगी निर्द्वंद्व !
कहीं तो एक सरलपन होगा, जहां भेद नहीं रह जाता !
कहीं तो कोई एक स्थान होना चाहिए, एक स्थिति होनी चाहिए—जहां सब द्वंद्व खो जाते हैं, द्वैत लीन हो जाता है, अद्वैत का जन्म होता है ! उसी अद्वैत की बात है।
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निर्द्वद्वो बालवत धीमान् एवं एव व्यवस्थित:।
हो जाये जो बच्चे जैसा निर्द्वंद्व, द्वंद्व के पार..।
एक बात और यहां समझ लें। बच्चे जैसा कहा है; बच्चा ही नहीं कहा है। क्योंकि अगर ऐसा हो तो सभी बच्चे संतत्व को उपलब्ध हो गये। लेकिन बच्चे संतत्व को उपलब्ध नहीं हैं। बच्चे तो अभी भटकेंगे। बच्चे तो भटकने की पहली दशा में हैं, भटकने के पूर्व। संत है भटकने के बाद। वर्तुल पूरा हो जाता है। जहां से चले थे, वहीं आ जाते हैं। अगर जीवन ठीक—ठीक विकासमान हो, ठीक—ठीक वर्द्धमान हो, अगर जीवन ठीक से चले—तों जब पैदा हुए,जैसे बच्चे थे वैसे ही मरते वक्त पुन:बच्चे हो जाना चाहिए। तो वर्तुल पूरा हो गया। जहां से चले थे वहीं वापस आ गये; मूलस्रोत उपलब्ध हो गया।
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यह अंतिम बालपन की बात हो रही है। बच्चों जैसे का अर्थ है बच्चे नहीं; जो गुजर चुके जीवन के सारे अनुभवों से और फिर भी बच्चे जैसी सरलता को उपलब्ध हो गये हैं! बच्चे तो बिगड़ेंगे, बच्चे तो बिगड़ने को बने हैं। बच्चे तो अभी तैयार हो रहे हैं बिगड़ने के लिए। अभी निकाले जायेंगे बहिश्त के बाहर। अभी स्वर्ग खोयेगा। अभी उनकी जो निर्दोषता है, वह कोई उपलब्धि नहीं है, वह प्रकृति की भेंट है।
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सभी बच्चे सुंदर, सभी बच्चे शांत, सभी बच्चे समग्र पैदा होते हैं। फिर धीरे— धीरे विसंगतियां पैदा होती हैं, विरोध पैदा होते हैं। धीरे— धीरे बच्चे का बचपन खोता चला जाता है। पाप पैदा होता है। पाप का इतना ही अर्थ है : भेद शुरू हो गया। कपट पैदा होता है। कपट का इतना ही अर्थ है. हिसाब आ गया। सरलता चली गई। जैसे थे वैसे न रहे। जैसे नहीं हैं, वैसा बतलाने में लगे। राजनीति आ गई। कूटनीति आ गई।
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बच्चा तो भटकेगा। बच्चे को भटकना ही पड़ेगा, क्योंकि बिना भटके जगत के अनुभव से गुजरने का कोई उपाय नहीं। इस जगत के बीहड़ वन में भटकना पड़ेगा। संत वह है जो इस बीहड़ वन से गुजर गया; इस सबको देख लिया—अच्छे को भी, बुरे को भी—और दोनों को असार पाया। जिन्होंने बुरे में सार देखा, वे दुर्जन; जिन्होंने अच्छे में सार देखा,वे सज्जन; जिन्होंने दोनों में सार नहीं देखा, वे संत। जो दोनों के पार हो गये, जिन्होंने दोनों को देख लिया, दोनों को देखा, खूब देख लिया, भरपूर देख लिया—और दोनों को थोथा पाया......।

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